संवाद
"छोटे दिन का बड़ा अनुभव"
22 दिसंबर वर्ष का सबसे छोटा दिन मेरे लिए बहुत बड़े दिन का अनुभव लेकर आया। 90 वां जन्मदिवस की छोटी सी पारिवारिक पार्टी का सौभाग्य मिला। सुबह से लेकर शाम तक की परीक्षा-ड्यूटी से अत्यंत थके होने के बावजूद उनका प्यार ऐसा था कि बरबस कदम उनके पास पहुंच गए। बड़े प्यार से उन्होंने अपने बगल में बिठाया जबकि उनके परिवार के सारे सदस्यों के साथ मेरा बहुत कम परिचय था।
केक काटकर और मोमबत्ती बुझाकर अपना जन्मदिन मनाने वाली नई पीढ़ी आज दीप प्रज्वलित करके अपने पितामह को गले लगा कर हैप्पी बर्थडे कह रही थी। कांति तथा शांति के साथ गौर वर्णवाले दादा जी बड़े सुंदर लग रहे थे। मुझे उन्हें देखकर ओशो की कही हुई एक पंक्ति बार-बार याद आ रही थी- "यदि जीवन का सम्यक विकास हो तो बुढ़ापा सबसे सुंदरतम क्षण होना चाहिए।"
मैंने अपने बाबूजी को भी लगभग 90 वर्ष की अवस्था में भी ऐसी ही शांति और कांति संयुक्त शोभायमान स्वरूप में देखा था। आज की दौड़ती-भागती भौतिकतावादी पीढ़ी के साथ निश्चल-निस्पंद आध्यात्मिक पीढ़ी का संबंध असंभव सा लगता है। लेकिन यहां पर मुझे अनुभव और प्रेम के सागर में नई पीढ़ी को स्विमिंग करते देखकर बहुत अच्छा लग रहा था। मानो जोश और होश परस्पर गले मिल रहे हों।
अभी 1 महीने पहले जब इनसे मैं मिलने गया था तो बातचीत में जीवन के एक अद्भुत संदेश से मेरा साक्षात्कार हुआ। "माधव" शब्द को समझाते हुए वे मुझे बता रहे थे कि "मा धाव" अर्थात् 'मत दौड़ो' संस्कृत का शब्द कालांतर से 'माधव' बन गया। व्याकरणिक दृष्टि से यह व्युत्पत्ति सही न भी हो किंतु जीवन के अनुभव की दृष्टि से आज मुझे शत-प्रतिशत सही लगती है। आज हर कोई भाग रहा है,दौड़ रहा है किंतु कहीं पहुंच नहीं रहा है,जहां उसे शांति और सुकून मिले-
मंजिल मंजिल करती दुनिया,
मंजिल है कोई शै नहीं
जिसको देखा चलते देखा,
पहुंचा तो कोई है नहीं।
इसी भागती फिरती दुनिया का परिणाम जेनरेशन-गैप के रूप में आ रहा है। नई पीढ़ी और पुरानी पीढ़ी के बीच संबंध आज इतना ज्यादा टूट चुका है कि नई पीढ़ी क्रेच में पल रही है और पुरानी पीढ़ी वृद्धाश्रमों में अंतिम सांसें गिन रही हैं।
प्रतियोगिता के संसार में आगे निकल जाने की होड़ में प्रेम के लिए ठहर जाने वाली दुनिया आज बहुत मुश्किल से दिखाई देती है। यही कारण है कि पढ़ाई के स्थान भी तनाव और डिप्रेशन देने वाले ही नहीं,आत्महत्या कराने वाले स्थान में बदलते जा रहे हैं। परिवार से दूर जहां बड़ों की छाया नसीब नहीं हो, वहां तड़पन और घुटन के अलावा और क्या नसीब हो सकता है?
वहां कौन है तेरा मुसाफिर जाएगा कहां
दम ले ले घड़ी फिर ये छईयां पाएगा कहां...
वस्तुतः जीवन एक अद्भुत संतुलन है-प्रतियोगिता और प्रेम का, गति और विश्राम का, आजीविका और जीवन का, अर्वाचीन और प्राचीन का। इस संतुलन को खोकर हमने , बहुत कुछ खो दिया है। भारतीय संस्कृति में गृहस्थ आश्रम को सबसे महत्वपूर्ण आश्रम माना गया है और परिवार को सबसे महत्वपूर्ण संस्था।
बेतहाशा दौड़ ने संयुक्त परिवार को एकल परिवार में तब्दील कर दिया और अब तो एकल परिवार में भी दरारें आने लगी हैं। लेकिन आज भी कुछ परिवार ऐसे हैं जहां कई पीढ़ियां साथ रह रही हैं। वहां पुरानी पीढ़ी के प्रेम में नई पीढ़ी कुछ देर ठहरना सीख जाती है और नई पीढ़ी की गति से पुरानी पीढ़ी में कुछ जान आ जाती है।
समाचारपत्रों में परिवार टूटने की खबरें तो खूब छपती हैं किंतु जुड़े हुए परिवारों की खुशियां तो दिलों में ही बसती हैं।
संवेदनाओं और भावनाओं की पार्टी से लौटकर जल्दी सो गया और ब्रह्म मुहूर्त में जग कर उन खुशियों के लम्हों में शरीक हुए खुशनसीब लोगों के साथ अपने सगे संबंधियों के चेहरे मिलाने लगा।
आज जब कोरोना की दहशत ने नए वर्ष के जश्न को अपने आगोश में समेटना शुरू कर दिया है, तब मुझे परिवार के साथ बिताए प्रेम के कुछ देर के पल भी शाश्वत प्रतीत हो रहे हैं। प्रेम और संस्कार से परिपूर्ण परिवार में वृद्ध भी बालक सी अठखेलियां करते हैं और बालक भी बड़ों के समान अनुभव की बात।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹