"नववर्ष करुणापूर्ण हो"


कोरोना महामारी फिर से एक बार दरवाजे पर आ खड़ी हुई है। चीन में इसकी भयावहता इतनी ज्यादा है कि नए वर्ष के जश्न का सूरज निकलने के पहले घनेरे काले बादलों में ढंकता जा रहा है। वहां के हॉस्पिटल में बेड की ही नहीं बल्कि दवाओं की भी कमी और श्मशानों पर पड़े हुए लाशों के ढेर महाकाल की याद दिला रहे हैं।


भारतीय संस्कृति कहती है कि इस महाकाल से बचने का कोई उपाय नहीं है। इसका मतलब कदापि यह नहीं है कि महामारी से लड़ने की हम तैयारी नहीं करें। सावधानियां बरती जानी चाहिए और तैयारियां की जानी चाहिए। किंतु हमारे ऋषियों का सत्य यह है कि कोई भी सावधानी और तैयारी मृत्यु से बचा नहीं सकती। जन्म के साथ ही मृत्यु निश्चित हो जाती है, कभी बारी-बारी से तो कभी सामूहिक रूप से-


पी की नगरिया है दूर,


सजनी जाना पड़ेगा जरूर।


जग का यही है दस्तूर,


सजनी जाना पड़ेगा जरूर।।


महामारी में बारी-बारी का सिस्टम टूट जाता है; कहीं कब्र तो कहीं कफन नसीब नहीं होता, कहीं लकड़ी जलाने को नहीं बचती तो कहीं रोने वाला कोई नहीं बचता।


कहानी है कि मौत से बचने के लिए एक राजा अपना सबसे तेज घोड़ा लेकर के भागा। अपनी राजधानी से दूर जब वह एक पेड़ के नीचे रुका तो मौत वहां खड़ी मिली और बोली कि तू एकदम सही समय पर और सही जगह पर आ गया।


भारतीय मनीषियों ने इसीलिए काल के देव शंकर को महादेव मान लिया। महाकाल के मंदिर में होनेवाली भस्म आरती सत्य को स्वीकार करने का अद्भुत साहस का परिचायक है।


पश्चिम ने विज्ञान की खोज से मृत्यु को जीतने का प्रयास किया और विषाद से भर गया किंतु पूरब ने धर्म की खोज से मृत्यु को स्वीकार कर लिया और परमानंद से भर गया। प्रकृति से संघर्ष नहीं बल्कि प्रकृति की समझ परमात्मा तक पहुंचा देता है।


कोरोना महामारी के कारण नए वर्ष के जश्न को रोकना नहीं चाहिए बल्कि इसे महाकरुणा के साथ मनाना चाहिए। अपनों से मिलने का मौका चूकना नहीं चाहिए यह सोच कर कि शायद यह अंतिम मौका हो-


लग जा गले कि फिर हसीं रात हो न हो


फिर से जनम में मुलाकात हो न हो...


यह दुर्लभ जीवन बहुत छोटा है,बहुत अनिश्चित है, पानी के बुलबुले के माफिक क्षणभंगुर है; इसमें कहां ईर्ष्या,कहां वैमनस्य और कहां जंग!


नए वर्ष पर जिनसे कभी नहीं मिले हो उनसे पूरा मिल लो, जो अरमान अधूरे रह गए हैं उसे पूरा कर लो, जो गिले-शिकवे हैं उसे दूर कर लो ताकि जाते समय कोई अफसोस न रहे और कबीरदास के समान कह सको-


प्रेम रंग रस भीनी चदरिया


बड़े जतन से बीनी चदरिया


फिर ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया..


बड़े जतन से अपने को भी और अपनों को भी बचाते हुए नए वर्ष के स्वागत में प्रेममिलन के रस को खूब पीना है और भरपूर जीना है-


मौत निश्चित है तो क्या हम जीना छोड़ दें?


प्रेम गरल भी है तो क्या हम पीना छोड़ दें??


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ सर्वजीत दुबे


नववर्ष की शुभकामना🙏🌹