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"अनमोल रिश्ते"


जिस जमाने में खून के रिश्ते को निभाना मुश्किल होता जा रहा है, उस जमाने में दोस्ती के रिश्ते को 35 साल के बाद भी गहरे बनाते जाना असंभव लगने वाले सुखद-आश्चर्य से कम नहीं। वह दोस्ती भी दो सहेलियों की हो तो उस पर विश्वास करना नामुमकिन सा लगता है क्योंकि लड़कियों पर पारिवारिक शिकंजा बहुत कसा होता है।


किंतु इस रिश्ते को मैंने बहुत नजदीक से देखा और इस दोस्ती के रिश्ते का सबसे प्रभावित पक्ष भी मैं ही रहा। अतः इस दोस्ती को शब्दों में बांध पाना संभव नहीं किंतु इस दोस्ती का एहसास मेरे दिलों में इतना गहरा और इतने खूबसूरत रूप में बैठ गया है कि "प्यारे-दुश्मन" के बारे में कुछ कहने से अपने आप को रोक भी नहीं पा रहा।


बात 1988 की है जब भरतपुर से आई हुई और जोधपुर से आई हुई इन दोनों बालाओं की पहचान राजस्थान विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र विभाग के सहपाठी के रूप में हुई। जोधपुरी बाला पढ़ने हेतु क्षत्रिय परिवार से विद्रोह करके आई थी क्योंकि परिवारवाले शादी के लिए अनावश्यक दबाव बना रहे थे। जाहिर है उनके पास हॉस्टल के और कॉलेज के फीस देने तक को पैसे नहीं थे।


भरतपुरी बाला के पिता शिक्षकीय वेतन के अत्यल्प होने के कारण और अन्य पारिवारिक जिम्मेदारियों के कारण अपनी पुत्री को पढ़ने हेतु बाहर भेजना नहीं चाहते थे। किंतु अपने चाचा के प्यार और प्रोत्साहन के कारण वह भी लड़कर जयपुर हॉस्टल पहुंच चुकी थी। शनै:शनै: दोनों सहेलियां इतनी अंतरंग हो गई कि शिक्षक और साथी इन्हें "एक प्राण दो देह" की उपमा से नवाजने लगे।


जोधपुरी बाला के पिता सोचते थे कि बिना पैसों के यह हॉस्टल में टिक कैसे पाएगी, अतः लौट के घर को ही आएगी। किंतु उन्होंने सोचा ही नहीं था कि पैसा और प्यार दोनों का संबल देने वाला कोई मिल जाएगा। अपने पिता के कड़े रुख के कारण जोधपुरी बाला छुट्टियों में भी अपनी सहेली के घर जाती थी।


सहेली का घर ऐसा था कि जहां पर्याप्त संसाधन नहीं था किंतु प्यार से भरा हृदय इतना बड़ा था कि छोटा भाई भी स्कूल में अपने परिवार का नाम लिखता था तो सबसे बड़ी दीदी के रूप में "शोभा" का नाम ही लिखता था,उसके बाद अपनी दीदी "अंजना" का।


सारे रिश्तेदार शोभा और अंजना के परस्पर लगाव को वरदान के रूप में देखने लगे क्योंकि इनके पास जीवन के खुले आकाश में उड़ने के लिए प्यार और पढ़ाई रूपी दो पंख थे, जिसकी हर जगह जरूरत महसूस होती है।


सहपाठियों में परस्पर प्रतियोगिता होती है किंतु इस दोस्ती की सबसे बड़े आश्चर्य की बात कि एम.ए.की परीक्षा में अंजना गोल्ड-मेडलिस्ट हो गई तो शोभा की खुशी का ठिकाना नहीं रहा जबकि दोनों ने एक ही नोट्स से एक ही साथ पढ़ाई की थी। दोनों ने लड़की होने के बावजूद पढ़ाई के लिए विद्रोह का झंडा उठाया था और स्नातकोत्तर के रिजल्ट ने दोनों का परचम इस कदर लहराया था कि दोनों इलाके के लोग इनका नाम लेकर अपनी बेटियों को पढ़ाने हेतु बाहर भेजने के लिए सोचने लगे।


किंतु लड़कियों के टॉपर्स होने के साथ सब कुछ अच्छा नहीं हो जाता बल्कि नई चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं। अब राजपूती आन-बान-शान वाले पिता की चिंता और विरोध हद से ज्यादा बढ़ने लगा था क्योंकि शोभा के शादी नहीं करने से अन्य छोटी बहनों के भी रास्ते रुके हुए थे। ऐसा ही कमोबेश हाल दूसरी सहेली का भी था। किंतु इन दोनों सहेलियों ने तो मानो पढ़ाई को ही जीवन समर्पित करने का मन बना लिया था और अपने भाई-बहनों को भी पढ़ाई के लिए प्रेरित करने का बीड़ा उठा लिया था।


लड़कों की दोस्ती और लड़कियों की दोस्ती में यहां एक मौलिक अंतर उभरकर आया कि जहां लड़के अपनी दोस्ती के कारण अपने परिवार से दूर हो जाते हैं,वहां पर ये दोनों सहेलियां अपने परिवार के लिए अहर्निश बेहतर से बेहतरीन करने की योजना बना रही थी।


इन दोनों की मेहनत रंग लाई और दोनों उच्च शिक्षा में सहायक प्रोफेसर बनने में सफल हुईं। अपनी सारी अकादमिक उपलब्धियों के बावजूद इन दोनों की मंजिल प्रशासनिक सेवा में जाने की थी। समाज की सोच में लड़कियों की मंजिल शादी होती है। और जो लड़की शादी की चर्चा से परहेज करने लगे तो प्यार करने वाला परिवार भी कुछ और रूप में नजर आता है।


दोनों सहेलियां जब अपने मंजिल की ओर बढ़ रही थी तो ऐसे एक नाजुक लम्हे में मेरी पहचान सहकर्मी होने के नाते अंजना जी से हुई और साथ-साथ आईएएस की तैयारी के कारण पहचान दैवयोग से शादी में परिवर्तित हुई।


यह शादी शोभा जी को अत्यंत नागवार गुजरी क्योंकि अपना घर छोड़कर अंजना के रूप में उन्होंने एक सहेली ही नहीं पाया था बल्कि साथ में एक नया परिवार भी पाया था। प्यार और परिवार दोनों एक साथ जब हाथ से निकलता हुआ दिखा तो उनको मैं जानी-दुश्मन सा लगने लगा। जिस अंजना पर एकमात्र उनका अभी तक अधिकार था, उस पर अधिकार जमाने वाला एक खतरनाक पति जैसा प्राणी भी आ चुका था।


लेकिन दोनों सहेलियों के प्यार की खुशबू से मेरी अंतरात्मा सुवासित हो चुकी थी। दोनों के परस्पर समर्पण कि मैं बहुत कद्र करता था किंतु जब पत्नी पर मेरा अधिकार-भाव जगता था तो शोभा जी घायल होती थीं और उनका जब सहेली-भाव जगता था तो मैं घायल होता था। इन दो घायल प्राणियों के बीच में पड़ा हुआ निरीह-प्राणी अंजना हमेशा लहूलुहान होती रहती थी-


"जिंदगी एक है और तलबगार दो


जां अकेली मगर जां के हकदार दो


मैं कहां जाऊं होता नहीं फैसला


एक तरफ उसका घर एक तरफ मयकदा.."


शोभा जी को सभी प्यार और आदर से दीदी कहा करते थे। अतः संबोधन में तो मैं भी शोभा दीदी ही कहता था किंतु प्रतिद्वंद्विता का भाव कभी भी हम दोनों के मन से नहीं गया। साथ में पढ़ने से मुझे बहुत जल्द पता चल गया कि पढ़ाई के क्षेत्र में मैं इन दोनों का मुकाबला नहीं कर सकता। जिसने जीवन खेल में बिताया हो,वह जीवन भर पढ़ने वाले से मुकाबला कर भी कैसे सकता था? लेकिन पुरुष प्रधान समाज में लड़कियों से कमतर होने को स्वीकार करने वाला मन भी जल्दी कैसे बन सकता था?


पढ़ने वालों के अनुसरण और अनुकरण की प्रवृत्ति मेरी शुरू से थी। इसी कारण खेल दुनिया से मैं पढ़ाई की दुनिया में आ गया। शादी के बाद मैं इन दोनों की स्पर्धा में थोड़ा ज्यादा पढ़ने लगा और इनसे सीखने लगा। इस प्रवृत्ति के कारण घर में पढ़ने-पढ़ाने का माहौल परवान चढ़ता गया और इन दोनों सहेलियों की नज़दीकियां भी।


फिर शोभा जी भी शिमला में प्रोफेसर बनने के बाद परिणयबंधन में बंधीं और एक पुत्र को जन्म दिया। किंतु उनका भी पारिवारिक दायित्व अपनी सहेली के प्रति प्यार के बीच में आड़े नहीं आया। हर छोटी मोटी बातें अपनी सहेली के साथ शेयर करना और घंटो करना किसी भी पति रूपी प्राणी को अच्छा तो नहीं लगता किंतु जब भी मैं पतिभाव का त्याग कर देता हूं तो यह शेयर का भाव मुझे बहुत अनमोल लगता है। और मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूं कि इसमें मेरी भूमिका बाधक की न होकर सदा सहायक की हो।


प्रतियोगिता के इस जगत में प्यार का एक जगत इन दोनों सहेलियों ने जो बनाया है,वह बहुत खूबसूरत है, बहुत हसीं है और बहुत सावधानी के साथ संभाल कर रखा जाने वाला अनमोल उपहार है। दोस्ती की कहानियों में जो चीजें बची हुई हैं, आज वह मेरी आंखों के सामने साक्षात् रुप से घट ही नहीं रही है बल्कि परवान चढ़ रही हैं।


तभी तो अंजना जी अपने परिवार के 15 सदस्यों के साथ सहेली के पास नए वर्ष के लम्हों को यादगार बनाने के लिए पहुंच गई और सहेली ने भी सभी का स्वागत ऐसा किया कि हर एक में मानो उनको अपनी सहेली का अश्क दिख रहा हो।


जिस जमाने में संयुक्तपरिवार एकल परिवार में तब्दील हो गया और वक्त की कमी तथा हृदय की संकीर्णता ने पति-पत्नी में भी दरारें पैदा करनी शुरू कर दी हैं ; उस जमाने में 35 साल से दोस्ती के पौधे को हर प्रकार के खरपतवार से बचाकर उसे बढ़ाते रहना किसी आश्चर्य से कम नहीं।


अब तो उस पौधे पर रंग बिरंगे फूल लगने लगे हैं,कई प्रकार के फल लटकने लगे हैं और दूर-दूर से आकर पंछी अपना बसेरा बनाने लगे हैं। उन दोनों के परस्पर प्यार को देख रहा हूं और अब मैं साक्षी-भाव में जो अनुभव कर रहा हूं, वह अपने सीमित शब्दों से उस असीम प्यार को आप तक नए वर्ष के उपहार के रूप में पहुंचा रहा हूं। इस अवसर पर इन दोनों सहेलियों के द्वारा मुझको बताई गई एक कविता याद आ रही है-


प्यार किसी को करना लेकिन


कहकर उसे बताना क्या?


खुद को अर्पण करना पर ,


औरों को झुकवाना क्या?


मन के कल्पित भावों से


औरों को भ्रम में लाना क्या?


गुण का ग्राहक बनना लेकिन


गाकर उसे सुनाना क्या?


ले लेना सुगंध सुमनों की ,


तोड़ उन्हें मुरझाना क्या?


प्रेम-हार पहनाना लेकिन


प्रेम-पाश फैलाना क्या??


दुआओं में बहुत ताकत होती हैं। मेरे साथ आप भी दुआ करना कि जहां भी ऐसा नि:स्वार्थ और निश्छल प्रेम का बीज हो,वह इन्हीं की तरह फूले-फले।


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे


"नया साल रिश्तों का


प्रेम के फरिश्तों का" ...🙏🌹