संवाद


"नए वर्ष का उपहार"


नए वर्ष की शुभ बेला में सदा चुप रहने वाले शख्स के एक नए रूप का दर्शन हुआ। उनका मौन आज मुखर रूप में प्रकट हो रहा था।


संसार में रहते हुए उनका जीवन सदैव संसार से अलग-थलग ही जल में कमल के समान रहा। शिक्षक के रूप में क्लास में ईमानदारी से बच्चों को पढ़ाने के अतिरिक्त समय में वे सदा भजन में लीन रहते। घर में कम से कम शब्दों के बोलने के कारण घर के लोगों से भी उनका संबंध कम से कम होता चला गया। पत्नी को और बच्चों को हमेशा यह चिंता रहती कि इतनी अंतर्मुखता से गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलेगी?


भाई-बंधु और संबंधी नाराज रहते कि ऐसा ही एकांतवास में रहना था तो किसी आश्रम में चले जाते। राजकीय सेवानिवृत्ति के बाद तो "न कहीं आना, न कहीं जाना और न किसी से बोलना" की उनकी दिनचर्या बहुत आलोचनाओं का शिकार बनने लगी। किंतु चुपचाप भगवान के ध्यान में और भजन में लीन रहना उन्होंने नहीं छोड़ा।


इनके दो बच्चियों की शादी कैसे होगी और दो बच्चों की पढ़ाई कैसे आगे बढ़ेगी-यह प्रश्न सभी के जेहन में हमेशा उठता रहता था। लेकिन उनकी दृढ़ धारणा थी कि प्रभु प्राप्ति के लिए यह जीवन मिला है, बच्चों के लिए मैं प्रार्थना कर सकता हूं और वेतन-पेंशन के पैसों को दे सकता हूं किंतु इससे ज्यादा मेरे वश में कुछ नहीं।


उनके अन्य भाई धनार्जन में और अपने बच्चों के सुखद भविष्य के लिए अहर्निश लगे रहते। सामाजिक भाइयों के बीच में एक निर्मोही व्यक्तित्व की गृहस्थी की गाड़ी कैसे चलती?


किंतु इस जगत में कुछ ऐसा घटता है जिसे देखकर लगता है कि जगत को कोई दृश्य व्यक्ति नहीं बल्कि अदृश्य प्रभु ही चला रहा है। जिस शख्स ने सिर्फ प्रभु की चिंता की,उस शख्स के सारे बच्चे स्वयं की चिंता करने लगे और अच्छी सरकारी नौकरी में स्थान पा गए। उन सबकी गृहस्थी की गाड़ी अच्छी तरह आगे बढ़ने लगी।


इतने कम पैसों में,इतने कम स्थान में, इतने कम सामान में और इतने कम तनाव में भी कोई गृहस्थ सिर्फ प्रभु के सहारे संसार में भी सफल हो सकता है और धर्म में भी ऊंचाई छू सकता है तो यह घटना साधारण नहीं बल्कि मेरी दृष्टि में असाधारण है।


इसके पहले जब भी उनसे एकांत में बात करता था तो संस्कृत के सूक्ष्म श्लोकों की और ऋषियों की गहरी अंतर्दृष्टि की उनकी समझ का अंदाजा तो होता था किंतु उनके मौन के कारण कितनी बात उनको किस सीमा तक समझ में आई, यह पता नहीं चलता था।


लेकिन इस बार सिर्फ वे ही बोल रहे थे। ऐसा लगा मानो सागर अपने बांध को तोड़कर बहना चाह रहा हो। श्रोता के रूप में अगल बगल में जो दो-तीन शख्स थे, सभी के साथ उनकी सहानुभूति थी‌। इस कारण से उनके हृदय के उद्गार तटबंधों को तोड़कर बहने लगे-


"प्रभु पूजा का दीप देह का यह उपमान बहुत है


गंगाजल कहलाए आंसू यह सम्मान बहुत है।"


वे कह रहे थे -"जीवन मिला ही इसलिए है कि हम प्रभु दर्शन कर सकें। कौन पति,कौन पत्नी,कौन बेटा,कौन बेटी; सारे संबंध मिथ्या हैं। धन,पद,प्रतिष्ठा के लिए जिस जीवन को हम गवां रहे हैं,सब यहीं छूट जाएगा। जब से अपने अंदर में प्रभु का दर्शन हुआ तब से उन्हीं के ध्यान में और भजन में मैं डूबा रहता हूं। इस कारण किसी की आलोचना का कोई असर मुझ पर नहीं होता। अपनी अनिवार्य आवश्यकता पूरी करने लायक संबंध ही संसार के साथ मेरा बचा हुआ है। बाकी मैं सभी से नाता तोड़ चुका हूं और आवागमन से मुक्ति के लिए आगे बढ़ चला हूं।


जाने के पहले अपने जीवन का यह आनंद तुम लोगों को नए वर्ष के उपहार के रूप में देना चाहता हूं। ले सको तो इस उपहार को अपने हृदय में संभाल कर रख लो, अन्यथा मनुष्य जन्म आसानी से दोबारा नहीं मिलने वाला है। अनेक योनियों से गुजर कर जो मानव जन्म मिला है, उसकी सार्थकता इसी में है कि बाहर जाती हुई अपनी दृष्टि को अपने अंदर की तरफ मोड़ो और प्रभु के साथ एक हो जाओ।


नए वर्ष का यह अनमोल उपहार मुझसे छूट भी नहीं रहा है और मेरी पकड़ में भी नहीं आ रहा है। 3 प्रोफेसरों के समक्ष उनकी कहीं गई बात कि- "जीवन की मंजिल तो प्रभु-पद है, प्रोफेसर-पद नहीं" -दिन-रात कानों में गूंजने लगी है। लेकिन उनकी तरह प्रभु पर सब कुछ छोड़ देना अपने लिए संभव नहीं दिखता। परंतु उनके साक्षात् जीवन को देखकर प्रभु के आकर्षण से बच पाना भी अब संभव नहीं लगता-


"प्यासा अंतर्जग के विस्तृत


मरू में भटक भटक कर हारा


तुझे समझने के प्रयत्न में


बिता दिया निज जीवन सारा।


पर तुम बने रहे सदा ही मृगतृष्णा की छाया


तुमको समझ न पाया,तुमको समझ न पाया।।


या तो तुम मुझमें अपने में


भेदभाव आभास मिटा दो


या तो मेरे मन का अपने प्रति


यह समूल विश्वास मिटा दो।


मैं तो जग की भूल भुलैया में भरमाया


तुमको समझ न पाया,तुमको समझ न पाया।।"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹