संवाद
"तीर्थ प्राणों से भी प्यारा क्यूं?"
सम्मेद शिखर को पवित्र तीर्थ स्थल घोषित करने की मांग को लेकर बांसवाड़ा के लोहारिया कस्बे में जन्मे जैन मुनि समर्थ सागर जी ने भी अपने प्राण त्याग दिए। इसके चार दिन पहले सुज्ञेय सागर महाराज जी ने अपने प्राणों का बलिदान कर दिया था।
किसी भी जीव के लिए सबसे प्रिय प्राण होता है। किंतु अंतरज्योति जल जाए तो प्राणों से भी ज्यादा प्रिय धर्म हो जाता है-
जहां कहीं है ज्योति जगत में,जहां कहीं उजियाला
वहां खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकाने वाला
तीर्थ स्थल की पवित्रता को संरक्षित और सुरक्षित रखने के पुनीत प्रयास का समर्थन हर समाज को और हर व्यक्ति को करना चाहिए। यदि तीर्थ स्थल के आध्यात्मिक-विज्ञान को समझा जा सके और इसके महत्त्व को जाना जा सके तो कोई भी सरकार तीर्थ-स्थल को पर्यटन-स्थल में तब्दील करने की सोच भी नहीं सकती।
रहस्यदर्शी ओशो कहते हैं कि 24 में से 22 तीर्थंकरों ने इस सम्मेद शिखर तीर्थ स्थल पर साधना की और समाधि में लीन होकर कैवल्य को प्राप्त हुए। कोई भी साधक उस साधना-स्थली पर जाकर जिस तीव्रता से और सहजता से अपनी साधना में गति कर सकता है,वह अन्यत्र दुर्लभ है। जैसे सागर में कोई पाल खोल दे और परमात्मा की हवाएं उसे स्वयं ही महासागर की ओर बहा कर ले जाए, उसी प्रकार सम्मेद शिखर पर बहती हुई जैन-तीर्थंकरों की हवाएं किसी भी साधक के नाव को कैवल्य रूपी मंजिल की ओर बहाकर ले जाने में समर्थ हैं।
अहिंसा की जरूरत आज विश्व को सबसे ज्यादा है। "अहिंसा परमो धर्म:" का उद्घोष ही नहीं बल्कि उसको जीवन में उतारने वाले जैन संतों की प्रेरणा-स्थली सम्मेद शिखर ही यदि ज्यों का त्यों संरक्षित नहीं रखा जा सका तो अहिंसा का सबसे बड़ा प्रेरणास्रोत-स्थल हम खो देंगे।
अहिंसक आंदोलन की शक्ति को और आस्था के ज्वार को केंद्र सरकार ने बहुत जल्द भांप लिया और जैन समुदाय की इसे पर्यटन स्थल घोषित न करने की मांग मान ली। किंतु राज्य सरकार ने सम्मेद शिखर को पवित्र तीर्थ स्थल घोषित करने की मांग अभी तक नहीं मानी है।
पर्यटन स्थल से सरकारों को कितना भी आर्थिक फायदा हो किंतु तीर्थ स्थल से मिलने वाले आध्यात्मिक संबल के आगे वह महत्त्वहीन है। अर्थ-प्रधान दुनिया में अध्यात्म-प्रधान दृष्टि को समझना बहुत मुश्किल है-
"बुरे दिनों के लिए उन्होंने गुल्लकें भर लीं
हम तपस्वियों की दुआएं बचाकर रखते हैं
बात वे करते हैं सिर्फ दिमागी ख्याल की
हम दिल के जज्बात छुपाकर रखते हैं।"
आध्यात्मिक ऊर्जा के केंद्र सम्मेद शिखर जैसे हर तीर्थस्थल को हर कीमत पर बचाना हम सबकी नैतिक ही नहीं बल्कि आत्मिक जिम्मेदारी भी है।
पर्यटन स्थल बनाकर सरकारों ने प्राकृतिक- स्थलों को प्रस्तर-स्थलों में तब्दील कर दिया और हरे-भरे चमन को उजाड़ बना दिया। परिणामस्वरूप भूस्खलन,जलवायु परिवर्तन, अतिवृष्टि अथवा सूखा के कारण देवभूमि में भी यदा-कदा विनाश-लीला के दर्शन होते हैं। उत्तराखंड में ऐतिहासिक और पौराणिक संस्कृति का केंद्र ज्योतिर्-मठ या जोशीमठ आज खतरे में है। इसका मूल कारण यह है कि पर्यावरणविदों और धर्मविदों की सलाह को न मानकर सरकारें उद्योगपतियों की सलाह पर काम कर रही हैं।
पैसे कमाने की भूख में जंगलों को,जंगली जीवों को और तीर्थ स्थलों को नुकसान पहुंचाया जा रहा है और वहां बाजार बनाया जा रहा है। इसी प्रकार के समवेत पापों का फल कोरोना महामारी के रूप में हम झेल रहे हैं।
प्राकृतिक स्थलों के विनाश के बाद तीर्थ स्थलों को भी यदि हमने खो दिया तो जीवन को ऊंचाइयां देने वाली न तो प्रकृति बचेगी और न परमात्म-स्वरुप ऊर्जा का केंद्र।
महामारी से बचने के लिए महाजीवन के केंद्र प्राकृतिक-स्थलों को भी बचाना जरूरी है और तीर्थ-स्थलों को भी। इसके लिए सभी भारतीय नागरिकों को अपने मौलिक कर्त्तव्य को निभाने हेतु आगे बढ़ कर आना चाहिए क्योंकि प्रकृति में ही परमात्मा छुपा हुआ है जो तीर्थ स्थल पर ऊर्जा केंद्र के रूप में प्रकट होता है।
महान मूल्यों के लिए अपने प्राणों की बलि चढ़ाने वाले महात्माओं के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि होगी।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ सर्वजीत दुबे🙏🌹