संवाद
"जोशीमठ की पतंग"
ज्योतिर्-मठ की पतंग मकर संक्रांति के पहले ही जीवन रूपी डोर से कट चुकी है। तीर्थ को पर्यटन स्थल में तब्दील करने वाली विकास की मानसिकता ने देवभूमि को दरार-भूमि में बदल दिया।
मकर संक्रांति के शुभ अवसर पर जब आकाश में पतंगों को उड़ते हुए देख रहा हूं तो मन के अरमानों को भी आकाश चूमने की आकांक्षा से यह गाते हुए सुन रहा हूं-
चली चली रे पतंग मेरी चली रे
चली बादलों के पार, हो के डोर पे सवार
सारी दुनिया ये देख देख जली रे....
किंतु कभी स्वर्ग में रहने वाले जोशीमठ के वाशिंदों की हालत देखकर मुझे तो रोना आ रहा है। मकर संक्रांति में जब सूर्य उत्तरायण होकर भारत के समीप आने लगता है तो दिन बड़ा होने लगता है और रातें छोटी। मानो आशा का सूरज प्रत्येक दिन खिलता जाएगा और निराशा की रात सिमटती जाएगी।
लेकिन आदि गुरु शंकराचार्य ने जिस स्थान पर अपनी आध्यात्मिक ऊर्जा से ज्योतिर् मठ की स्थापना की, वह स्थान और वहां के जन के लिए अब रातें बहुत बड़ी हो जाएंगी। तिनका तिनका जोड़ कर जिस आशियाने को उन्होंने जीवन भर में बनाया था, उसे अब क्षणमात्र में छोड़कर कहीं और चले जाना है। आंखों में आंसूओं के कारण यह दिखाई नहीं दे रहा कि किस सामान को साथ लिया जाए और किस सामान को छोड़ा जाए। पालतू पशु- पंक्षियों को छोड़ पाना तो उनके लिए और मुश्किल है। भारी कदमों के साथ आधे-अधूरे सामान को वाहनों पर लादते हुए लोगों के मन में एक ही तराने फूट रहे हैं-
चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना..
रोते हैं वे पंख पखेरू साथ तेरे जो खेले
जिनके साथ लगाए तूने अरमानों के मेले
भींगीभींगी आंखों से ही उनकी आज दुआएं ले ले
किसको पता अब इस नगरी में कब हो तेरा आना
चल उड़ जा रे पंछी कि अब ये देश हुआ बेगाना।
मकर संक्रांति के दिन हिंदू पवित्र नदियों में स्नान कर और दान देकर एक धार्मिक वातावरण की सृष्टि निर्मित करेंगे। इसी धार्मिक वातावरण में हिंदू समाज में यह दृष्टि उभरनी चाहिए कि हमारे धार्मिक तीर्थ जो प्रकृति और परमात्मा के अद्भुत समन्वय के स्थल हैं, उन्हें पर्यटन स्थल बनाकर क्यूं और कैसे विनष्ट किया जा रहा है?
सम्मेद शिखर तीर्थ स्थल को पर्यटन स्थल बनाने से रोकने के लिए जिस प्रकार से जैन समाज एकजुट हुआ, उसी प्रकार से प्रत्येक समाज को अपने प्राकृतिक स्थल को और परमात्मा स्वरुप तीर्थ स्थल को बचाने के लिए एकजुट होना होगा ; अन्यथा आकाश में उड़ती हुई पतंग की डोर को कब विकास रूपी चाइनीज मांझा काट जाए कुछ कहा नहीं जा सकता-
अमीरों की सैर,गरीबों की आंखों में आंसू लाता है
यह कौन सा विकास है और कहां से आता है??
सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात यह है कि कटी हुई पतंग को लूटने के लिए कुछ नादान दौड़ते हैं किंतु अपने मूल स्थान से विस्थापित होकर अपनी सारी संपत्ति और संपदा से कटे हुए लोगों के लिए बामुश्किल कुछ इंसान सामने आते हैं।
शिष्य-गुरु संवाद से डॉ.सर्वजीत दुबे
मकर संक्रांति की शुभकामना
तीर्थोद्धार की बने मनोकामना🙏🌹