संवाद
"साहित्य-संस्कृति की महनीय भूमिका"
साहित्य और संस्कृति की मन के निर्माण में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मन की प्रमुखता के कारण ही मानव सभी जीवों में सर्वश्रेष्ठ बन गया-
"न हि मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित्"-महाभारत
यूजीसी ने सभी विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को आत्महत्या रोकने के लिए कोर्स तैयार करने को कहा है। जिस देश में हर घंटे 25 आत्महत्याएं हो रही हो और हर दिन लगभग 500, उस देश को इस गंभीर विषय पर सोचना ही होगा। किंतु सोच को बदलने वाली शिक्षा ही जब आत्महत्या का केंद्र बनने लगे तो उस शिक्षा पर भी गहराई से चिंतन-मनन होना चाहिए।
कोचिंग नगरी कोटा में हर 2 दिन में 1 विद्यार्थी की आत्महत्या ने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि जीवन देने वाली शिक्षा जीवन कैसे ले रही है और क्यों?
कोचिंग के क्लास में सिर्फ सिलेबस पढ़ाया जाता है और अच्छे से अच्छे अंक प्राप्त करना ही उसका मकसद होता है। स्कूल-कॉलेज के क्लास में तो सिलेबस पढ़ाया जाता है किंतु साथ ही साहित्यिक-सांस्कृतिक और खेलकूद गतिविधियों के द्वारा व्यक्तित्व में छुपे हुए अन्य सारे गुणों को भी उभारने का प्रयास किया जाता है जिसका मकसद जीवन निर्माण होता है,सिर्फ अंक नहीं।
शिक्षा का ढंग बहुआयामी होना चाहिए क्योंकि जीवन बहुआयामी है -
"गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर
मेहंदी में जैसे लाली हो , वर्तिका बीच उजियाली हो।"
कोई बुद्धि की प्रतिभा का धनी हो सकता है तो किसी में गाने की प्रतिभा अद्भुत हो सकती है, कोई नाचने में महारत हासिल कर सकता है तो कोई खेलने में, किसी में सेवाभाव का अद्भुत गुण हो सकता है तो किसी में नेतृत्व का ; क्या कोटा कोचिंग व्यक्तित्व के इन सारे गुणों को पल्लवित पुष्पित करने हेतु कभी सोच भी सकता है? - एकदम नहीं।
लेकिन हर मां बाप अपने बच्चों को सिर्फ डॉक्टर या इंजीनियर बनाने के लिए कोटा कोचिंग में भेज देते हैं। कोचिंग वाले भी सिर्फ पैसा कमाने के लिए बिना किसी बीज को पहचाने उसके कोमल मस्तिष्क में कठोर सूचनाएं अधिकाधिक मात्रा में भरने लगते हैं। एक तरफ मां-बाप का साथ नहीं मिलता तो दूसरी तरफ शिक्षक का भी विद्यार्थियों के साथ वहां हार्दिक-संबंध नहीं होता। सिर्फ ज्यादा से ज्यादा अंक पाने के तरीके शिक्षक बताते रहते हैं। ऐसे में विद्यार्थी यदि तनाव,अवसाद और आत्महत्या का शिकार हो रहे हैं तो हमें साहित्य-संस्कृति के साथ खेलों पर ध्यान देना ही होगा।
इसका मतलब सिर्फ कोचिंग की जगह स्कूल कॉलेज की क्लासेज की ओर लौटना ही होगा। कोचिंग एक अल्पकालिक उपाय तो हो सकता है किंतु स्कूल-कॉलेज का विकल्प नहीं।
साहित्य-संस्कृति हमें सिर्फ मस्तिष्क में सीमित रहने नहीं देती, बल्कि हृदय में उतार देती है। बुद्धि तो सिर्फ हानि-लाभ से चलती है किंतु हृदय तो बेवजह कभी देश के लिए तो कभी दोस्त के लिए धड़कता ही रहता है। बुद्धि से धन की समृद्धि आती है किंतु जीवन की समृद्धि तो हृदय से ही संभव है। एक ऐसी शिक्षा चाहिए जो मस्तिष्क और हृदय के बीच अद्भुत समन्वय को स्थापित करे। हमने सिर्फ अक्ल को बढ़ाने पर जोर दिया और आत्मा को अंधेरे में पड़ा रहने दिया-
"अक्ल बारीक हुई जाती है
रूह तारीक हुई जाती है।"
पेपर लीक करने वाले और भ्रष्टाचार करने वाले सारे अक्लवाले हैं क्योंकि उनकी आत्मा घने अंधेरे में हैं। आज जरूरत है भावों से भरे हुए हृदय की जिसमें देश के लिए भी और दोस्त के लिए भी रसधार बहती हो। ऐसे हृदय के निर्माण में साहित्य-संस्कृति की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण है।
"शिष्य-गुरु संवाद" से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹