👆 "पिल्लों की मार्मिक दुनिया" 👇


एक कुत्तिया ने मेरी गली में 4 पिल्लों को जन्म दिया। उनमें से एक पिल्ला पिछले दोनों पैरों से चल नहीं पाता था। जैसे-जैसे पिल्ले बड़े होने लगे, बनाए गए छोटे घर से वे बाहर निकलने लगे। विकलांग पिल्ला अपनी जगह से घिसट-घिसटकर जीवन के लिए संघर्ष कर रहा था। उसे देखकर दया भी आती थी और जीवन को आगे बढ़ाने के लिए उसका संघर्ष देखकर हौंसला भी मिलता था।


मां की ममता भी ऐसी थी कि उसी से ज्यादा समय चिपकी रहती थी। कुछ दिनों के बाद मां बाहर जाने लगी। बाकी पिल्ले मां के पास दौड़कर जाकर दूध पीने लगे। विकलांग पिल्ला की दयनीय हालत देखकर मैडम ने उसे बरामदे में रख लिया। अब उसकी मां भी उसके पास कम आने लगी। पशु प्रेमी ने उसे ठंड से बचाने हेतु और उसकी कमजोरी दूर करने हेतु विशेष व्यवस्था करने की सलाह दी।


विकलांग पिल्ले की मां के अन्यत्र व्यस्त होने पर उसकी नानी बरामदे में उसके पास आकर सोने लगी और उसे शरीर से चिपकाकर गर्मी देने लगी। बोतल का दूध उसे पिलाया जाने लगा और उसके पैरों की मालिश किया जाने लगा।


नानी के प्यार को देख कर ऐसा लगता था कि बीच की युवा पीढ़ी अन्यत्र व्यस्तता के कारण जब किसी बच्चे को समय नहीं दे पाती हैं तो पुरानी पीढ़ी उस पर विशेष ध्यान देने लगती हैं। नई और पुरानी पीढ़ी के इस प्रेम को देख कर एक तरफ खुलते जा रहे क्रेच और दूसरी तरफ बढ़ते जा रहे वृद्धाश्रम याद आने लगे। साथ ही जीवन के प्रति मन में अनेक प्रकार के प्रश्न उठने लगे- भगवान किसी को विकलांग क्यों बनाता है? पैरों से नहीं चल पाने पर पेट के बल घिसटते हुए चलकर फिर जीवन अपने आप को कैसे और क्यों बचाने लगता है?


ठंडी रात में वह कंपते होंठों से ठिठुरन भरी जब आवाज निकालता तो उठ उठ कर मैडम उसके पास जाती। मन में कई बार यह प्रश्न उठता कि हे भगवान! तू कितना निर्दयी है ; न इसे जीने दे रहा है और न मरने दे रहा है!


आज सुबह में उसका एक भाई (पिल्ला) सबसे स्वस्थ होने के बावजूद दरवाजे के पास मरा मिला। जीवन भी अजब वक्त दिखाता है जिसके सुनहरे भविष्य दिखाई दे रहे थे, वह अचानक छोड़ जाता है।


इसके बाद विकलांग पिल्ले के कराह को देखकर हृदय और ज्यादा द्रवित होने लगा। अंदर से उसके लिए मौत की प्रार्थना उठने लगी। ऐसे वक्त महात्मा गांधी याद आए। अहिंसा का यह पुजारी अपनी बकरी को दर्द से तड़पते हुए न देख सका और उसे जहर का इंजेक्शन दिलवाकर इस जीवन से मुक्त करने का फैसला लिया।


शाम को जब कॉलेज से लौटा तो वह विकलांग पिल्ला बरामदे में अपने टाट पर सांसे छोड़ चुका था। उसकी नानी की आंखों से आंसू बह रहे थे। लेकिन अपनी आंखों में न आंसू थे और न आशा।


वैराग्य भाव से उसके शरीर को लेकर ठिकाने लगाने ले जा रहा था तो 50 दिनों के उसके जीवन के बारे में सोचकर जीवन की क्षणभंगुरता, व्यर्थता और असहायता का भाव उमड़-घुमड़ रहे थे-


दुख ही दुख ज्यादा है जग में


सुख के क्षण तो अल्प है


सौ आंसू पर एक हंसी


यह विधना का संकल्प है।


उस निष्ठुर खिलाड़ी का बहुत निठुर खिलवाड़ है


विधना के बस इसी खेल में यह माटी लाचार है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹