"दीक्षांत की महिमा"


'दीक्षांत' ज्ञानप्रधान भारतीय संस्कृति का सबसे उत्कृष्ट भावनात्मक और आशीर्वादात्मक समारोह था। ब्रह्मचर्य-आश्रम में जिस अंतेवासी को गुरु विद्या प्रदान करने हेतु उपनयन संस्कार के बाद गुरुकुल के लिए ग्रहण करता था, उसे सारी शिक्षा-दीक्षा प्रदान करने के बाद दीक्षांत समारोह के अवसर पर समाज के लिए मुक्त करता था- "ज्ञानार्थ प्रविश,सेवार्थ गच्छ" अर्थात् 'ज्ञान के लिए आओ और सेवा के लिए जाओ' का यज्ञ संपन्न हुआ।


उस समय गुरु शिष्य का संबंध सिर्फ शाब्दिक और बौद्धिक ही नहीं होता था बल्कि हार्दिक और आत्मिक भी होता था। गुरु जो वचन बोलता था,उसको अपने आचरण से शिष्य की अंतरात्मा में उतार देता था। शिष्य का गुरु के साथ 24 घंटे रहना उसमें आमूलचूल परिवर्तन ला देता था।


तभी तो गुरु द्रोण का अपने शिष्य अर्जुन के प्रति लगाव अपने पुत्र अश्वत्थामा से भी ज्यादा हो जाता था; क्योंकि शिष्य अपनी ग्रहणशीलता और गुरुभक्ति से गुरु का आत्मज बन जाता था।


गुरुकुल में होने वाली ज्ञान-साधना की अग्नि से गुजरकर शिष्य कुंदन की तरह निखर जाता था। इसी ज्ञानसाधना और तपस्या ने पांडवों को 12 वर्ष के वनवास और 1 वर्ष के अज्ञातवास को झेल जाने की शिक्षा दी और राम,लक्ष्मण, सीता को 14 वर्ष के जंगलकाल को मंगलकाल बनाने की दीक्षा दी।


दीक्षांत के अवसर पर गुरु शिष्य को "सत्यम् वद,धर्मं चर, स्वाध्यायन्मा प्रमद ..." की दीक्षा देकर समाज में उस ज्ञान को सफल-सुफल बनाने के लिए जाने की आज्ञा देता था।


आज दीक्षांत समारोह का आयोजन किया जाता है किंतु सोचने की बात है कि -- "क्या सीखने वाले ने सिखाने वाले के साथ अहर्निश रहकर अंतरंग संबंध बनाया है?" क्या मन-वचन-आचरण की एकता से शिष्य गुरु का संबंध निर्मित हुआ है?


आज तो दीक्षांत समारोह में शामिल होने वाले अधिकतर प्रतिभाएं स्वयंपाठी होती हैं क्योंकि शिक्षालयों में शिक्षक का अभाव हो गया है। उपलब्ध अल्प शिक्षक भी गैर शैक्षिक कार्यों पर प्राथमिक रूप से ध्यान देते हैं। वे छात्र के साथ पूरा बौद्धिक संबंध भी नहीं बना पाते, हार्दिक संबंध तो बहुत दूर की बात है। टीचर और स्टूडेंट के बीच आज नोट्स लेने और देने का संबंध रह गया है। व्यावसायिकता ने हार्दिकता और आत्मिकता को पूर्णतया खत्म कर दिया है।


फिर भी दीक्षांत समारोह का आयोजन किए जाने की परंपरा का मैं प्रशंसक हूं क्योंकि इस दिन यह जरूर याद आएगा कि प्राचीन गुरु-शिष्य का संबंध आकाश की ऊंचाइयों पर क्यूं उड़ता था और अर्वाचीन टीचर-स्टूडेंट का संबंध कहां पहुंच रहा है?


शिक्षा तो कोटा कोचिंग में भी दिन रात दी जा रही है, फिर क्या कारण है कि आत्महत्या की दीक्षा में वहां विद्यार्थी दीक्षित हो रहे हैं?


क्या कारण है कि यूजीसी को विश्वविद्यालयों और कॉलेजों को आत्महत्या रोकने का कोर्स तैयार करने को कहा जा रहा है?


दीक्षांत के अवसर पर तो गुरु अपने आत्मज (शिष्य)को समाज की सेवा के लिए भेज देता था और इस मंत्र के साथ भेजता था कि गुरुकुल में जो कुछ मैंने एकांत में सिखाया है, उसे संसार के बीहड़ में भी कदापि भूल मत जाना। ऐसे दीक्षांत समारोह से निकले हुए विद्यार्थी प्रकाश स्तंभ के समान होते थे और अंधकारपूर्ण इलाकों में जाकर अपने गुरु और गुरुकुल की रोशनी फैलाते थे -


वो जहां भी जाएगा रोशनी लूटाएगा


चिरागों का अपना कोई मकां नहीं होता।


किंतु आज के चिरागों से धुआं निकलने लगा है। स्वर्ण पदक प्राप्त विद्यार्थी भी अपनी सारी शिक्षा दीक्षा को अपने मकान-दुकान को बनाने में ज्यादा लगा देते हैं ,जगत के कल्याण में कम।


दीक्षांत समारोह की गौरवमयी परंपरा से हमें अपने स्वर्णिम अतीत की याद आ जाए और उन रास्तों पर हम चलने को प्रेरित हो जाएं तो आयोजन सार्थक हो सकता है -


"गुरु शिष्य का यह शुभ नाता सोचो पावन है कितना


हिमगिरि के शिखरों से निकले गंगा मां के जल जितना


उस नाते की मर्यादा को अगर निभा सकें हम कुछ ऐसे


गुरुवर रामकृष्ण बन जाएं, शिष्य विवेकानंद जैसे।"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे


बधाई और शुभकामना 🙏🌹