संवाद


"रिश्तों की गांठें"


पश्चिमी मन में बच्चे न पैदा करने का और अपनी जिंदगी को स्वच्छंदता के अनुसार जीने का एक बड़ा क्रेज है। किंतु पूरब का मन ठीक इसके विपरीत मेरे अनुभव में दिखाई दे रहा है। बच्चे के लिए और अपनी जिंदगी को दूसरे के लिए जीने में भारतीय मन अपनी सार्थकता समझता है।


70 वर्ष की उम्र में सेवानिवृत्त हिंदी की प्रोफेसर और उनके उद्यमी पति को वक्त ने अकेला कर दिया। अपनी पर्याप्त संपत्ति की बदौलत वे अपने जीवन को अपने अनुसार बड़े शौक मौज से जी सकते हैं। लेकिन अपने एकमात्र पुत्र के 40 वर्ष की अवस्था में हृदयाघात से दिवंगत होने के बाद वे एक लड़ाई लड़ रहे हैं-कानूनी भी और हार्दिक भी, आर्थिक भी और आत्मिक भी।


यह लड़ाई अनूठी है क्योंकि यह किसी गैर के विरुद्ध नहीं है। बल्कि यह अपने ही बहू के विरुद्ध है जो इनकी पोतियों को इनके पास आने देने के पक्ष में नहीं है।


इस वृद्ध दंपत्ति का मन यदि पश्चिम का होता तो पुत्र के चले जाने के बाद उसका सारा भार अपने कंधे पर लेने को कदापि नहीं सोचता; और किसी सुविधाजनक वृद्धाश्रम या आश्रम में अपने लिए अच्छी व्यवस्था कर लेता।


लेकिन उनकी आंखें अपनी पोतियों के दर्शन को तरसती हैं, उनके भविष्य को लेकर उनके दिल से आहें निकलती हैं और जाते जाते उन्हें सुरक्षित देखकर जाने के लिए परमात्मा के आगे प्रार्थना निकलती हैं।


इकलौते पुत्र की असामयिक मृत्यु को वर्ष भर से ऊपर हो गए और उसके जाने के जख्म बहू की मूढ़ता के कारण दिन प्रतिदिन और हरे होते गए। अहंकार की इस लड़ाई को नैहर पक्ष की सक्रियता ने चरम पर पहुंचा दिया।


'रिश्तो की गांठें कहां और कैसे उलझ जाती हैं?' -इस बात को समझने के लिए इससे बेहतर केस दूसरा नहीं मिल सकता। बड़ी मल्टीनेशनल कंपनी में बड़े अधिकारी के पद पर काम करने वाला पुत्र असमय में दुनिया से चला गया और हाउसवाइफ की भूमिका में सिमटी रहने वाली पत्नी को तीन बच्चियों के साथ अकेला छोड़ गया। ऐसे में समर्थ दादा-दादी तो बहू के लिए सबसे बड़े सहारे बनते। और पोतियों के लिए तो वे पिता की अनुपस्थिति में परमपिता साबित होते।


पता नहीं चल रहा कि एक तरफ सारी संपत्ति का वारिस किस अहंकार के कारण या किस अपराध बोध के कारण तीनों बच्चियों का भार अपने ऊपर लिए हुए संपत्ति के एक छोटे से हिस्से के लिए लड़ाई कर रहा है। दूसरी तरफ दादा-दादी अपनी सारी संपत्ति को न्योछावर करने के लिए और पोतियों का भार उठाने के लिए अदालत के दरवाजे तक खटखटा रहे हैं-


"कितने एहसान कर गए रिश्ते


जिस्म से जान तक उतर गए रिश्ते


चलने वाला धूप में चलता ही रहा


राहों में छांव पाकर ठहर गए रिश्ते।"


कहने को तो बहू जी ने मनोविज्ञान में डॉक्टरेट की उपाधि अर्जित कर रखी है, सास जी साहित्य में कई शोध की निर्देशिका रह चुकी हैं और ससुर जी एक प्रतिष्ठित व सामाजिक व्यक्तित्व हैं। उसके बावजूद भी पिता का साया उठने के बाद तीनों बच्चियां ही नहीं बल्कि पूरा परिवार मानसिक तनाव से गुजर रहा है।


नजदीक से इस वास्तविकता को देखकर रिश्तों की उलझन को समझने और सुलझाने के क्रम में किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ मैं स्वयं उलझता जा रहा हूं। हृदय के अज्ञात कोने से कोई आवाज आ रही है,जो कह रही है-


"आदमी की हयात कुछ भी नहीं


बात यह है कि बात कुछ भी नहीं।


तूने सब कुछ दिया है इंसां को


फिर भी इंसा की जात कुछ भी नहीं।।"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹