आखिर अतीक को क्या मिला?


"बड़ा कर्म या ऊपर वाला?"


अपराधी अतीक के साबरमती जेल से बाहर ले जाने की घटना को मीडिया ने ऐसा कवरेज दिया मानो महात्मा गांधी का साबरमती से दांडी मार्च प्रारंभ हुआ हो। फिर उसके बेटे असद और शूटर गुलाम का पुलिस एनकाउंटर में मारा जाना राष्ट्रीय बहस का मुख्य मुद्दा बन गया। अंत में फिल्मी अंदाज में मीडियाकर्मी बनकर आए तीन अपराधियों ने अतीक, अशरफ को गोलियों से भूनकर पुरानी कहानी का पटाक्षेप कर नया डॉन बनने की नई कहानी की शुरुआत कर दी।


जब बुरे साधनों से धन,पद,शक्ति तथा विधायिका-संसद में प्रवेश करने जैसा बड़ा साध्य मिल सकता हो तो उस रास्ते के नित नए दावेदार मिलते रहेंगे‌। गांधीजी साधन और साध्य की पवित्रता पर इसीलिए सबसे ज्यादा जोर दिया करते थे।


सबसे महत्वपूर्ण यक्ष प्रश्न यही था कि "सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?" युधिष्ठिर का उत्तर था- "मनुष्य घट रही घटनाओं और अनुभवों से कुछ नहीं सीखता।" अन्यथा एक माफिया को गोली मारकर उससे बड़ा माफिया बनने का सपना नहीं देखा जा सकता था‌। ‌


अपराधी का खौफ कितना भी हो, किंतु बुरे कर्म के कारण अंत उसका बहुत बुरा होता है।मूल संदेश यह है कि- "ईश्वर भले ही तुम्हें माफ कर सकता है किंतु कर्म कभी भी माफ नहीं करता।"


इसीलिए महावीर और बुद्ध जैसे धार्मिक व्यक्तित्वों ने ईश्वर को नहीं माना किंतु कर्म के सिद्धांत को माना।


ईश्वर को बड़ा मानने वाले माफी की उम्मीद कर सकते हैं तथा अपने कर्म की जिम्मेदारी दूसरे पर थोप सकते हैं किंतु कर्म को सर्वेसर्वा मानने वाले महावीर और बुद्ध जैसे लोग सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर लेते हैं। उनकी नजरों में कर्म का नतीजा तत्क्षण मिलता है। अच्छे कर्म का अच्छा नतीजा और बुरे कर्म का बुरा नतीजा। लेकिन अच्छे कर्म से बुरे कर्म को कभी काटा नहीं जा सकता है।


माफ करने वाले ईश्वर का भरोसा हो और अच्छे कर्म द्वारा बुरा कर्म को काटने का भरोसा हो तो गलत कर्म मजे से किया जा सकता है। बढ़ते अपराध के मूल में और राजनीति के अपराधीकरण के मूल में यही सोच काम कर रही है। अपराधी किस्म के राजनेता धर्मस्थलों पर ज्यादा जाने लगते हैं और गलत तरीके से अर्जित की गई अपने धन और शक्ति के द्वारा लोगों का भला करके रोबिनहुड की छवि बना लेते हैं। अन्यथा हमारी संसद और विधानसभाओं में गंभीर किस्म के अपराध करने वालों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं होती।


अतीक को अपने मारे गए बेटे का मुंह देखने को नहीं मिला और गुलाम की मां ने तो अपने बेटे का शव लेने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि उसके बुरे कर्मों के कारण मेरा पूरा परिवार बर्बाद ही नहीं बदनाम भी हो गया। अतीक अशरफ को गोली मारने वाले अपराधियों के परिवारवालों ने भी उनसे अपना पल्ला झाड़ लिया।


नारद द्वारा बताए प्रश्न पूछने पर बाल्या भील को जब पत्नी और पिता ने यह कह दिया कि परिवार चलाने के लिए कर्म करना तुम्हारी जिम्मेदारी है लेकिन तुम्हारे पाप कर्मों का भागीदार हम नहीं बन सकते तो उसकी आंख खुल गई‌। और इस घटना के कारण बाल्या भील कवि वाल्मीकि बन गया।


गलत कर्म से अर्जित किए गए धन-पद-शक्ति तो दुनिया को दिखाई देती है किंतु गलत कर्म करने वाले ने आत्मा की जो कीमत चुकाई है और अंदर में जो नर्क बनाई है वह किसी को भी दिखाई नहीं देती।


उस आत्मा को देखने वाली और अंदर के नर्क को देखने वाली आंखें पैदा करने की जरूरत है। झोपड़ी में रहकर भी आत्मवान व्यक्ति जिस आनंद को उपलब्ध हो सकता है, उस आनंद को बड़े महलों में रहकर भी आत्महीन व्यक्ति कभी भी उपलब्ध नहीं हो सकता। आत्महीन व्यक्ति तो प्रतिपल नरक में जीता है क्योंकि उसके बुरे कर्म कभी भी उसे शांत नहीं होने देते। इसीलिए तो बुद्ध और महावीर जैसे लोग उस आत्मा को पाने के लिए महलों को छोड़कर जंगल में निकल जाते हैं और अत्यंत आनंद से भर जाते हैं‌।


अतः आत्मा को जागृत करके होशपूर्वक प्रत्येक कर्म का चुनाव करना चाहिए-


"टोक देता है कदम जब भी गलत उठता है


ऐसा लगता है कि कोई मुझसे बड़ा है मुझमें


अब तो ले दे के वही शख्स बचा है मुझमें


मुझको मुझसे जुदा करके जो छुपा है मुझमें"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹