"पुस्तकों से इतनी दूरी क्यूं?"


"विश्व पुस्तक दिवस" पर पुस्तकों के प्रति वागड़ पीढ़ी की अरुचि से कॉलेज शिक्षक होने के नाते मैं विशेष सोच में पड़ गया हूं-


"जिंदगी इतनी अधूरी क्यूं?


पुस्तकों से इतनी दूरी क्यूं??"


क्षेत्र में कई नए कॉलेज खुले, नया "गोविंद गुरु जनजातीय विश्वविद्यालय" उन्नति के सोपान की ओर बढ़ रहा किंतु विद्यार्थी वर्ग ने मौलिक पुस्तकों से ऐसी दूरी बनाई है जो शिक्षा जगत के लिए शुभ संकेत नहीं है।


गाइड और पासबुक वाली इस पीढ़ी ने वन वीक गाइड और लास्ट मिनट पासबुक की ओर अपना जीवन बढ़ा दिया है। प्रथम दिन से अपने क्लास में पुस्तक के साथ आने के लिए विद्यार्थियों को कहता रहा किंतु एक-दो को छोड़कर अन्य विद्यार्थियों ने परीक्षा के नजदीक आने पर भी बाजार से अपनी पुस्तक नहीं खरीदी।


पैसे का अभाव इसके पीछे मूल कारण नहीं है क्योंकि उन विद्यार्थियों को कपड़े बदल कर आते हुए मैंने देखा। मूल कारण यह सोच है कि पुस्तकालय से पुस्तक लेकर डिग्री प्राप्त कर लेनी है और इससे ज्यादा इनका उपयोग क्या है।


जो विद्यार्थी अपने कोर्स की पुस्तक भी नहीं खरीद सकते, वे किसी महापुरुष के जीवन पर लिखी पुस्तक को क्यूं कर खरीदेंगे? पुस्तक नहीं खरीदने के कारण इनकी पढ़ने की आदत इतनी छूट गई है कि एक घंटे का क्लास भी इन्हें बहुत लंबा लगता है। एक आवेदनपत्र तक लिखना इन्हें नहीं आ रहा।


गिरावट इस स्तर तक पहुंची है कि विश्वविद्यालय की परीक्षा की कॉपी का कॉलम भरने में वीक्षकों की ही नहीं बल्कि व्हाइटनर की भी मदद लेनी पड़ रही हैं। जो भी परीक्षक पुस्तिका की जांच कर रहा है, वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो जा रहा है कि इन्हें पास करें तो कैसे करें?


मन के लिए पुस्तक का आधार नहीं मिलने के कारण यहां की पीढ़ी गलत रास्तों की ओर जा रही है। आज के स्थानीय समाचारपत्र की मुख्य खबर है कि प्रेमी से बात करते पाकर पिता ने पुत्री का गला दबा दिया। यह पिता बचपन से बच्चों को किताब नहीं खरीद कर देता, शिक्षालय में जाकर बच्चे की उन्नति के बारे में शिक्षकों से कभी पूछताछ नहीं करता; किंतु यही पिता और परिजन स्कॉलरशिप की स्कूटी के लिए 10 बार कॉलेज आकर हम लोगों से जानकारी मांगते हैं। सरकार भी सोचती है कि स्कूटी या अन्य सामान बांटने से शिक्षा का विकास हो जाएगा और समाज भी सोचता है कि पढ़ाई का फल स्कूटी या ज्यादा से ज्यादा नौकरी है। सरकार और समाज की निगाह जब सामान पर होती है,शिक्षक की निगाह इंसान पर होती है।


शिक्षक की सोच यह है कि जो पीढ़ी पुस्तक से प्रेम नहीं करती, वही कभी अपने जीवन से भी प्रेम नहीं कर सकती,परिजन और मित्रजन से तो प्रेम क्या करेगी?


तन के सौंदर्य पर आज की पीढ़ी प्रतिदिन चार-पांच घंटे लगाती है किंतु जो मन इस शरीर को चलाता है उसके सौंदर्य को निखारने के लिए उनके पास न तो इच्छा शक्ति है और न वक्त है।


मेरे शिक्षक और परिवारजन कहते थे कि सत्साहित्य और सत्संगति जीवन को खुले आकाश में उड़ाने के दो पंख हैं।


श्रेष्ठ लोगों का साथ हर पल मिलना संभव नहीं ,किंतु श्रेष्ठ पुस्तकें तो हर पल साथ रखी जा सकती हैं। मेरे विद्यार्थी जीवन में विवेकानंद साहित्य की पुस्तकें ₹2 और ₹5 में मिलती थी। इतनी सस्ती पुस्तकों के शब्द इतने अमीर होते थे कि अभाव में भी सम्राट की जिंदगी का भाव ह्रदय में उत्पन्न हो जाता था। सौभाग्य से साथी भी ऐसे थे कि जो यह विचार रखते थे कि- दो रोटी कम खाएंगे, किताब नई लाएंगे। निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से निकले ऐसे मेरे साथियों को पुस्तकों ने ऐसा संस्कार दिया कि बड़े पदों पर पहुंच कर भी वे अत्यंत सादगीपूर्ण उच्च मूल्यों का जीवन जीते हैं।


इस जीवन के अंधकार में नई पीढ़ी को पुस्तक रूपी दीपक ही रास्ता दिखा सकता है। किंतु पुस्तक का महत्त्व तभी पता चलता है जब परिवार में और परिवेश में पुस्तकों के प्रति दीवानगी हो, उस परिवार और परिवेश के निर्माण में शिक्षा जगत की बहुत बड़ी भूमिका है। किंतु अफसोस यह है कि पासबुक और गाइड बेचने वाले अमीर होते जा रहे हैं जबकि मौलिक पुस्तकें और सत्साहित्य रचने वाले अभाव का जीवन जी रहे हैं-


"मेरे जीवन में अंधेरे जब बहुत घने थे


रास्ता दिखाने को पुस्तकों के पन्ने थे।।"


नोबेल पुरस्कार विजेता मलाला की यह पंक्ति दिल में बिठाने का यह विशेष दिन है- "एक पुस्तक,एक शिक्षक आपका जीवन बदल सकता है।"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे


विश्व पुस्तक दिवस की शुभकामना🙏🌹