संवाद
"बेटियों के मन की बात"
साक्षी मलिक की आंखों में आंसू ओलंपिक में कांस्य पदक जीतने के बाद भी छलके थे और अब फिर से आंखों के आंसू छलके लेकिन इस बार किसी जीत में नहीं बल्कि इस हताशा में कि यौन उत्पीड़न के विरुद्ध आवाज उठाने पर अनुशासनहीन कहा गया और वह भी उड़नपरी पीटी उषा के द्वारा। प्रायः खिलाड़ी जज्बाती होते हैं , उसमें भी स्पोर्ट्सवुमन की बात तो कुछ और विशेष हो जाती है। एक खिलाड़ी का दर्द खिलाड़ी नहीं समझे और स्त्री के मन को एक स्त्री नहीं समझे तो हताशा स्वाभाविक है जबकि पी टी उषा स्वयं इस प्रकार के अनुभवों से गुजर चुकी हैं लेकिन आज वे एक खिलाड़ी और स्त्री कम,एक पदाधिकारी और राजनीतिक वफादारी के बोझ तले दबी हुई आत्मा ज्यादा हैं। व्यवस्था से ये बेटियां उनके साथ हो रहे अन्याय के विरुद्ध न्याय मांग रही हैं -
"उनके पूछे चंद सवालों का जवाब तो दो
उनकी आंखों के हिस्से का ख्वाब तो दो।"
पितृसत्तात्मक समाज में हरियाणा जैसे खाप पंचायत प्रधान राज्य से किसी लड़की का खेल में प्रवेश करना ही आश्चर्य में डालने वाली घटना है, कुश्ती में उतरना तो उससे भी बड़े आश्चर्य की बात है, ओलंपिक में देश के लिए मेडल लाना तो परम आश्चर्य की बात है। उनके संघर्ष को दिखाने वाली फिल्म 'दंगल' ने दिल जीत लिया था। उस फिल्म का मूल संदेश यह था कि प्रतिकूल परिवेश में भी पिता का थोड़ा सा साथ मिलने पर पुत्री कितनी ऊंचाई चूम लेती है, यदि समाज और राष्ट्र का भी साथ मिल जाए तो भार समझी जाने वाली बेटियां कहां से कहां पहुंच जाएं।
साक्षी, फोगाट जैसी लड़कियों को यदि अपने विरुद्ध हुए यौन शोषण के आरोप पर FIR कराने में नाकों चने चबाने पड़ते हैं तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि वास्तविक स्थिति क्या है?
जिस देश में "बेटी बचाओ" का नारा आज भी लगाना पड़ता है, उस देश को "बेटी पढ़ाओ और बेटी खेलाओ" की स्थिति तक पहुंचने के लिए कुछ चुनिंदा बेटियों को आगे करके ही अन्यों को प्रेरणा देनी पड़ेगी। लेकिन उन चुनिंदा बेटियों को जब राजनीतिक रसूखदारों के सामने आवाज उठाने में और जांच शुरू करवाने में खेल छोड़कर धरने पर बैठना पड़ता है और इतना लंबा संघर्ष करना पड़ता है तो देश के हर नागरिक को ऐसी राजनीति का संज्ञान लेना चाहिए और राजनीति के शुद्धिकरण की आवाज उठानी चाहिए।
यह दल विशेष की बात नहीं है बल्कि भारतीय राजनीतिक चरित्र के संकट की बात है। जो राजनीति जीवन के हर क्षेत्र को चलाती है, उस राजनीति में अच्छे लोगों की जगह अपराधियों का बोलबाला हो जाए तो भ्रष्टाचार और व्यभिचार की घटनाएं ज्यादा से ज्यादा बढ़ेंगी और आवाज उठाने वाले को बेरहमी से कुचल दिया जाएगा।
अपराधियों की रिहाई के लिए सरकारें नियमों में विशेष बदलाव करती हैं और रिहा होने पर समाज उनका फूल मालाओं से भव्य स्वागत करता है तो सोचना पड़ता है कि हम किस ओर जा रहे हैं और किसको आदर्श बना रहे हैं?
संसद और विधायिका में अपराधियों की संख्या बढ़ाते जाना,क्या विश्व गुरु बनने का यही मार्ग है? प्रतिभाओं को व्यवस्था में हाशिए पर ढकेलकर जुगाड़ू लोगों को शीर्ष पदों पर बिठा देना,क्या भावी भारत के निर्माण का यही मूल मंत्र है?
बांसवाड़ा जैसी छोटी जगह से एक किराना व्यापारी की बेटी कराटे में अपनी प्रतिभा के बल पर राजस्थान की ब्रांड एंबेसडर बनने के बाद राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी भूमिका में आने हेतु चंडीगढ़ में विशेष प्रशिक्षण ले रही हैं, उसके पिता से जब महिला खिलाड़ियों के धरने-प्रदर्शन पर चर्चा हो रही थी उनके चेहरे पर प्रतिभावान बेटी के उज्जवल भविष्य की आशा तथा खेल संघों के शीर्ष पर बैठे राजनीतिक चरित्र से उपजे निराशा के भाव एक साथ मुझे नजर आ रहे थे।
मेरी दृष्टि में लड़के और लड़की में कोई भेद नहीं है, दोनों परमात्मा के पास से विशेष प्रतिभा लेकर आते हैं किंतु लड़की की प्रतिभा के खिलने के लिए एक स्वच्छ, कोमल और संस्कारपूर्ण परिवेश की विशेष जरूरत होती है।
स्वच्छ,कोमल और संस्कारपूर्ण परिवेश की मांग के लिए संघर्ष कर रही इन बेटियों के साथ हम सभी की सहानुभूति ही नहीं समानुभूति भी होनी चाहिए।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹