"सुफलता की ओर एक कदम"


12वीं का परीक्षाफल आया किंतु सीबीएसई ने मेरिट लिस्ट जारी नहीं किया। शिक्षा जगत का यह अभिनव प्रयास अत्यंत सराहनीय है। आज के किशोरों के जीवन में काफी तनाव है, उस पर से ज्यादा से ज्यादा अंक लाने का तनाव उन्हें मानसिक रोगी बना देता है। तनाव,अवसाद, आत्महत्या के मूल में महत्वाकांक्षाजनित अहंकार है।


महत्वाकांक्षा को बढ़ाने में और अहंकार को बड़ा बनाने में जाने अनजाने माता-पिता और परिवार की भूमिका भी महत्वपूर्ण हो जाती है। मेरे रिश्ते में एक प्यारी बच्ची का रिजल्ट आया तो पता चला कि उसे 90 परसेंट अंक न पाने का अफसोस है। मैंने कहा कि अफसोस की बात कहां है? यह तो सुखद एहसास की बात है कि स्कूल की पढ़ाई करते हुए और नीट की कोचिंग करते हुए तुमने 90 परसेंट के आसपास अंक पाया है। दो मोर्चे पर साल भर डटे रहना क्या कम बात है? तुम्हारी नियमितता, अध्यवसाय और संघर्ष की प्रवृत्ति ने इतना अच्छा अंक दिलाया। यदि इन सद्गुणों के साथ 'जो प्राप्त हुआ,वह पर्याप्त हुआ' का भाव जुड़ जाए तो खुशी का ठिकाना न रहे। मेरे जमाने में तो 70% अंक पाकर खुशी का ठिकाना नहीं रहता था।


व्यक्तित्व के इतने आयाम होते हैं,जिनकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता। पूरा ध्यान अंक पर रहता है। अतः विद्यार्थी या तो सुपीरियरिटी कंपलेक्स के शिकार हो जाते हैं या इंफेरियरिटी कंपलेक्स के। मेरिट लिस्ट जारी न करने से कुछ टॉप अंक पाने वाले विद्यार्थियों को यह अफसोस हो रहा है कि उनकी कीर्ति दूर-दूर तक नहीं पहुंची। समाज में डंका बजाने का उनसे अवसर छीन लिया गया। लेकिन थोड़ा संवेदनशील तरीके से सोचें तो पाएंगे कि 100 में से एक टॉपर बाकी 99 को हीन भावना से भर देता है। इसी कारण से वह एक टॉपर भी ईगो से भर जाता है। हीन भावना तो बुरी बात है किंतु ईगो वाली भावना तो उससे भी बड़ी बुरी बात है। दोनों ही भावना गला काट प्रतियोगिता वाली शिक्षा का परिणाम है।


एक जमाना था कि कंपिटीटिव एग्जाम्स नौकरी के लिए ही होते थे ‌, लेकिन आजकल तो शुरू से लेकर अंत तक प्रतियोगितापूर्ण वातावरण में ही जीवन जीया जा रहा है।


यह सच है कि जीवन से प्रतियोगिता खत्म नहीं की जा सकती। किंतु यह भी सच है कि पूरा जीवन प्रतियोगिता हो नहीं सकता। जीवन में प्रेम का भी स्थान होना चाहिए। व्यवसायिक दृष्टि वाला आज का शिक्षा जगत प्रेम नहीं सिखा सका पर प्रतियोगिता को सीमा से पार बढ़ा सका।


बोर्ड की परीक्षा के लिए,फिर कोचिंग में एडमिशन के लिए, फिर अच्छे संस्थान में जाने हेतु अच्छा रैंक पाने के लिए, फिर प्लेसमेंट के लिए; जीवन भर प्रतियोगिता ही प्रतियोगिता। इस प्रतियोगितापूर्ण वातावरण में थोड़ी कमी करने की पहल करके सीबीएसई ने दूरदर्शितापूर्ण कदम उठाया है। अब माता-पिता,परिवार और समाज को भी चाहिए कि प्रेमपूर्ण परिवेश की ओर कदम बढ़ाएं। अर्थात् बच्चे के व्यक्तित्व के विविध आयामों की ओर दृष्टिपात करें‌। सिर्फ अंक किसी के व्यक्तित्व का मूल्यांकन कभी भी नहीं कर सकते।


भारतीय संस्कृति की शिक्षा प्रणाली अच्छा अंक लाने पर ज्यादा ध्यान नहीं देती थी बल्कि अच्छा इंसान बनाने पर सबसे ज्यादा ध्यान देती थी। अच्छा अंक तो सिर्फ मस्तिष्क की स्मृति पर ध्यान देने से प्राप्त हो जाता है किंतु अच्छा इंसान हृदय की भावना पर ध्यान देने से ही बन पाता है। मस्तिष्क केंद्रित आज की शिक्षा में हृदय को यदि शामिल नहीं किया गया तो जीवन सफल तो हो सकता है, सुफल नहीं।


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹