सेंसरबोर्ड बनाम जनभावना
June 22, 2023"सेंसरबोर्ड बनाम जनभावना"
आदिपुरुष फिल्म का मूल्यांकन जब रामानंद सागर की रामायण की कसौटी पर होगा तो प्रश्न उठेंगे। साहित्य समाज का दर्पण होता है किंतु साहित्य को समाज का सिर्फ प्रतिबिंबन ही नहीं करना चाहिए , बल्कि मार्गदर्शन भी करना चाहिए।
व्यावसायिक दृष्टिकोण से बनाई गई 'कृति' सांस्कृतिक दृष्टिकोण से बनाई गई "कृति" के सामने कैसे टिक सकती है? मुझे याद है कि रामायण शुरू होने से पहले लोग अपने टीवी को अगरबत्ती दिखाकर पूजा भाव से उसके सामने बैठते थे और प्रत्येक धारावाहिक को देखते थे और अगले अंक का बेसब्री से इंतजार करते थे। पात्रों द्वारा बोले गए हर शब्द की और हर अदा की अहर्निश चर्चा चलती थी। रामायण का हर पात्र अपने आपमें आदर्श की एक मिसाल है और उनका प्रस्तुतिकरण जब रामानंद सागर द्वारा पूर्ण पवित्र भाव से पूर्ण समर्पण के साथ किया गया तो संपूर्ण वातावरण आध्यात्मिक ऊर्जा से सराबोर हो गया। पात्रों के चयन से लेकर संवाद के चयन तक में मर्यादा की लक्ष्मण रेखा का पूर्ण पालन किया गया और उसे मर्यादा पुरुषोत्तम की राह पर लाने का प्रयास किया गया, जिसके कारण घर-घर में संवाद के सकारात्मक वातावरण का सृजन कर रामानंद सागर अमर हो गए।
आदिपुरुष की बॉक्स ऑफिस पर कमाई की सफलता तो नया कीर्तिमान स्थापित कर गई किंतु साथ ही साथ कंट्रोवर्सी ने इसकी सुफलता पर कई प्रश्न खड़े कर दिए। खासकर इसके संवाद ने तो विवाद को चरम पर पहुंचा दिया।
एक तरफ आदिपुरुष के समर्थकों का कहना है कि जब सेंसर बोर्ड को कोई आपत्ति नहीं तो अन्य लोग नाहक विवाद को क्यूं बढ़ा रहे हैं? संवाद लेखक श्री मनोज मुंतशिर का कहना है कि आज की युवा पीढ़ी को पौराणिक पात्रों से जोड़ने के लिए आज की भाषा को जानबूझकर अपनाया गया है, ठीक उसी तरह जिस तरह संस्कृत के विद्वान तुलसीदास ने जनसामान्य से जुड़ने के लिए अवधी भाषा को अपनाया। दूसरी तरफ फिल्म का विरोध करने वालों का कहना है कि पात्रों की गौरव गरिमा के अनुसार संवाद का चयन किया जाना चाहिए। हमारे सांस्कृतिक महापुरुष निम्नस्तरीय भाषा का कभी भी चयन नहीं कर सकते।
शब्दों के चयन और संवाद के सलीके को लेकर सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी हेट स्पीच पर चल रही बहस के दौरान गंभीर चिंता व्यक्त की गई है। हेट स्पीच के बढ़ते मामलों ने समाज में नफरत के बीज बोए हैं और उनका संज्ञान लेकर ही समाज में सामंजस्य और सौहार्द का वातावरण स्थापित किया जा सकता है। समाज के अग्रणी लोग जिस प्रकार के शब्दों का और भाषा का चयन करते हैं, वे ही शब्द और भाषा लोकव्यवहार में आने लगती हैं। ऐसे में असंस्कृत शब्दों के प्रयोग में विशेष सावधानी बरते जाने की आवश्यकता है। बहस करते समय कुछ व्यक्तिगत और आपत्तिजनक शब्दों के प्रयोग किए जाने पर हमारी संस्कृति के अनुसार तर्क कुतर्क की श्रेणी में आ जाता है। अतः वाद विवाद में भी मर्यादा का ख्याल रखा जाता है ताकि "संवाद" की मंजिल पाई जा सके।
इस पृष्ठभूमि में साहित्य और फिल्म की भूमिका तो बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है क्योंकि उनका प्रभाव सदियों तक पीढ़ियों पर पड़ता है। दृश्य काव्य के रूप में फिल्में तो भाषा और मन के निर्माण में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। फिल्मों की भाषा साहित्यिक भाषा की तरह परिष्कृत नहीं होती , फिर भी फ़ूहड़ भाषा का प्रयोग न तो शुभ होता है और न शोभनीय। ऐसे में यदि आस्था के केंद्र वाले पात्रों के लिए गरिमा से हीन भाषा का चयन किया जाता है तो जनभावना का ज्वार उमड़ना स्वाभाविक है।
इसे मैं कौम के जिंदा होने का प्रमाण मानता हूं। जो कौम गलत वचन का विरोध इतने बड़े पैमाने पर करती हो, वह कौम गलत आचरण वालों को कितने दिनों तक बर्दाश्त करेगी? अफसोस की बात यह है कि यह विरोध सेलेक्टिव और राजनीतिक रूप ले लेता है।
सुखद बात है कि संवाद लेखक ने अत्यंत विनम्रता का परिचय देते हुए जनभावना की आस्था का सम्मान किया और तुरंत विवादित डायलॉग्स को हटाने का निर्णय लिया। जनसामान्य तक पहुंचने के लिए साहित्य और कला को अपना स्तर नीचे गिराने के बजाय जनसामान्य का स्तर ऊंचा उठाने की दिशा में काम करना चाहिए। मेरी दृष्टि में साहित्यकार और कलाकार की प्रतिभा की कसौटी भी यही है। अधिकतर फिल्में अश्लीलता की बयार में इसीलिए बह गईं और टपोरी भाषा लोगों की जुबान पर इसीलिए चढ़ गईं क्योंकि जनसामान्य का इसे समर्थन मिला। लेकिन रुचियों का परिष्कार और भाषा का संस्कार यदि साहित्य और फिल्में नहीं कर पाईं तो वे उत्तम कोटि से गिरकर अधम कोटि में परिगणित की जाएंगी।
अधमकोटि का साहित्य और फिल्में व्यावसायिक दृष्टिकोण से कितनी भी सफल हो जाएं किंतु सांस्कृतिक दृष्टिकोण से वे सुफल नहीं होतीं। अतः रामायण और महाभारत जैसे उपजीव्य काव्य की ऊंचाई उन्हें कभी नहीं मिलतीं। हजारों वर्षों के बाद भी जनमानस की आस्था का केंद्र बने हुए पात्रों के साथ आधुनिक कहीं जाने वाली आज की पीढ़ी भी अपना जुड़ाव महसूस करती हैं। जिस प्रकार से कितना भी झूठ बोलने वाला बच्चा हो, अपने मां-बाप को झूठ बोलते हुए नहीं देखना चाहता; उसी प्रकार से छिछोरी भाषा की गिरफ्त में आ रही आज की युवा पीढ़ी भी अपने आदर्श पुरुषों को छिछोरी भाषा का प्रयोग करते हुए नहीं देख सकती।
ऐसा कम ही होता है कि जनसामान्य कलमकार को सावचेत करे। लेकिन लेखक और पाठक या वक्ता और श्रोता के बीच एक घनिष्ठ संबंध होता है। दोनों यदि अपने उत्तरदायित्व के प्रति जागरूक हों तो एक ऐसे समाज का निर्माण होता है जिसके लिए हमारे महर्षियों ने सरस्वती की साधना की थी-
"गलत के विरोध करने का भाव कहां से आया?
क्या कलम की रोशनाई से रक्त में उबाल आया??"
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ. सर्वजीत दुबे🙏🌹