संवाद
"सत्ता और सत्य"
गुरु पूर्णिमा के शुभावसर पर महाराष्ट्र की राजनीति में विश्वगुरु भारत द्वारा भ्रष्टाचार के आरोपियों को मंत्री पद से पुरस्कृत किया गया और वह भी आरोप लगाने वालों के द्वारा ही। राजनीति ने पार्टी ही नहीं परिवार को भी तोड़ दिया।तब भारत के राष्ट्रीय आदर्श वाक्य के संबंध में किसी शिष्य द्वारा पूछे गए सवाल- "सत्य और सत्ता के बीच क्या संबंध है?" - दिलो-दिमाग में घूमने लगा।
वस्तुतः सत्ता राजनीति का केंद्र बिंदु है और सत्य धर्म का। यही कारण है कि " सत्येन रक्ष्यते धर्मो " अर्थात् 'धर्म की रक्षा सत्य से होती है' की उद्घोषणा हमारी संस्कृति ने की है।
सत्ता के द्वार पर "सत्यमेव जयते" लिखा हुआ हम देखते हैं। यह औपचारिकता मात्र है। जीवन का अनुभव कहता है कि सत्ता की गलियों में "सत्य-प्रेम-अहिंसा" का सिक्का नहीं चलता है, अन्यथा गांधी को गोली नहीं मारी जाती। 'Kingship knows no kinship' अर्थात् 'सत्ता रक्त संबंध नहीं जानती' इसके अनगिनत उदाहरण इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं और जो आज भी साक्षात् रुप से देखने को मिल रहा है। राम और भरत का उदाहरण तो अपवाद हैं, दुर्योधन और दुशासन का उदाहरण सामान्य हैं। तभी तो राम की इतनी महिमा है। इतने मंदिर बनाए जाते हैं, यहां तक कि राम गमन पथ तक बनाए जाते हैं किंतु शायद ही कोई सत्ताधीश राम के पथ पर चलता हुआ मिल जाए।
राम होने के लिए बहुत कुछ त्यागना पड़ता है किंतु स्वयं को राम दिखाने के लिए या राम भक्त बताने के लिए प्रदर्शन काफी है। जो भारतीय संस्कृति अपने दर्शन के लिए विश्व में जानी जाती थी, वह आज प्रदर्शन की शिकार हो गई है। आत्मदर्शन को उपलब्ध ऋषि की घोषणा है- "सत्यमेव जयते"। अंतर-जगत के संबंध में यह सही है लेकिन बहिर-जगत के संबंध में सत्य का जीतना मुश्किल पड़ता है, उसमें छल-छद्म को भी मिलाना पड़ता है। तभी तो राष्ट्रकवि दिनकर लिखते हैं-
"सत्य ही जीत के लिए केवल नहीं बल चाहिए
कुछ बुद्धि का भी घात,कुछ छलछद्म कौशल चाहिए।"
सत्ता की कामना करने वाले राजनीतिक लोग झूठ-फरेब, छल-प्रपंच का जमकर उपयोग करते हैं और यह भी जानते हैं कि भारतीय जनता के मन में जगह बनाने के लिए सत्य का ही सहारा लेना पड़ेगा, भले ही वह दिखावे के लिए हो। मन और कर्म में भले ही सत्य न हो किंतु वचन में और प्रदर्शन में सत्य का दिखावा बहुत फायदेमंद है।
आज की राजनीति में प्रदर्शन पराकाष्ठा पर है। दल कोई भी हो, किंतु आज की राजनीति का बल धनबल और बाहुबल हैं ,सत्यबल कदापि नहीं। कुछ अच्छे लोग जो इस राजनीति में है, वे मूकदर्शक बने हुए हैं या हाशिए पर ढकेल दिए गए हैं।
आज यह मान्यता स्थापित कर दी गई है कि सेवा के लिए सत्ता जरूरी है। इससे ज्यादा भारतीय संस्कृति का घोर अपमान और कुछ नहीं हो सकता। आजादी की लड़ाई में भारत माता की सेवा के लिए अनेक लोगों ने अपना सर्वस्व दान किया, उनके पास कौन सी सत्ता थी। वे तो ब्रिटिश सत्ता के विरोध में अपनी जान जोखिम में डालकर भारत माता की सेवा करते रहे। ऐसे सेवाभावी लोगों के हाथ में सत्ता आई भी हैं तो उनमें सत्ता का मोह नहीं दिखा। चाहे लाल बहादुर शास्त्री हों, जिन्होंने एक रेल दुर्घटना की नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए रेल मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया या अटल बिहारी बाजपेई हों, जिन्होंने सत्ता बचाने के लिए एक वोट का जोड़-तोड़ करने से इंकार कर दिया; आज भी इनके नाम की चर्चा गर्व एवं गौरव के साथ इसीलिए होती हैं कि वे भारतीय राजनीति में सत्य और शुचिता के प्रतीक हैं। लेकिन आज सत्तालोलुप नेताओं की संख्या इतनी ज्यादा हो गई हैं कि उनकी नजर में शास्त्री और बाजपेई जैसे नेता को सफल नेता नहीं कहा जा सकता। उनकी परिभाषा में जो येन केन प्रकारेण सत्ता में बना रहे, वही सफल नेता है।
भारतीय संस्कृति सफलता से भी ज्यादा सुफलता को महत्व देती है। राजनीति कितनी भी गंदी हो गई हो किंतु भ्रष्टाचारी,व्याभिचारी और अत्याचारी नेता सत्ता से बाहर होते ही अपनी चमक खो देता है जबकि सत्यनिष्ठ और ईमानदार नेता सत्ता के बाहर भी कीचड़ में कमल की तरह खिला रहता है और आने वाली पीढ़ियां उसे याद करती हैं। गांधी में इतना आकर्षण आज भी इसीलिए बना हुआ है कि उन्होंने साधन की पवित्रता पर उतना ही ध्यान दिया जितना साध्य की पवित्रता पर। असत्य के रास्ते से धनबल और बाहुबल के आधार पर सत्ता में आने वाले लोगों से सत्य और सेवा की अपेक्षा कभी पूर्ण नहीं हो सकती।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ. सर्वजीत दुबे🙏🌹