प्रश्न: अभी तक सदैव टॉपर रही, पहली बार असफलता मिली है, बर्दाश्त नहीं हो रहा, क्या करूं? जिगीषा
प्रिय जिगीषा!
तुम्हारे नाम का अर्थ है-जीतने की इच्छा। जीत भी सदैव तुम्हें मिलती रही। 10वीं और 12वीं बोर्ड की परीक्षा को टॉप करके पूरे भारत की CUET परीक्षा में 800 में से 800 अंक प्राप्त कर सबसे अच्छा शिक्षा संस्थान "हिंदू कॉलेज" में अपनी जगह बनाई। इस उपलब्धि के लिए विभिन्न समाचार पत्रों ने भी तुम्हारा साक्षात्कार छापा। सदा जीत मिलने से तुम्हारा मन ऐसा बन गया कि हर परीक्षा के बाद जीत की इच्छा बनी रही। इस जीत की बड़ी आकांक्षा के कारण पहली बार मिली हार ने तुम्हें विचलित कर दिया है। अब जिगीषा को यह जिज्ञासा उत्पन्न हो रही है कि "हार को कैसे बर्दाश्त करूं?"
एक शिक्षक के रूप में मेरी सलाह यह है कि हार को स्वीकार करो। और दिल से स्वीकार करो। क्योंकि जीवन रूपी सिक्के का एक पहलू जीत है तो दूसरा पहलू हार है। जीत को तूने सदैव खुशी-खुशी गले लगाया तो अब हार से आंख क्यूं चुराना?
फूल पर हंसकर अटक तो शूल को रोकर झटक मत
ओ पथिक! तुझ पर यहां अधिकार सबका है बराबर।
सृष्टि है शतरंज ,और हैं हम सभी मोहरे यहां पर
शाह हो पैदल कि शह पर वार सबका है बराबर।।
जीवन के इस सत्य को स्वीकार करना ही होगा कि जिंदगी दिन भी है और रात भी, जिंदगी फूल भी है और शूल भी, जिंदगी जीत भी है और हार भी। तुम्हें बुरा इसलिए लग रहा है कि तुमने जिंदगी का अर्थ सिर्फ जीत ही जीत लगाया था। तुम अपने मां-बाप से भी अपनी हार को छुपाना चाह रही हो क्योंकि तुम्हें हमेशा शाबाशी देने वाला रूप ही उनका दिखाई दिया है। लेकिन मैं तुम्हारी हार पर और भी विशेष शाबाशी देना चाहता हूं। लिंकन ने अपने बेटे के शिक्षक के नाम जो पत्र लिखा था, उसमें यह लिखा था कि मेरे प्रिय शिक्षक! मेरे बेटे को जीतना जरूर सिखाना लेकिन यह भी सिखाना की हार को गले कैसे लगाया जाता है।
तुम अत्यंत प्रतिभाशाली छात्रा हो किंतु अब तुम्हारी प्रतियोगिता अन्य प्रतिभाशाली विद्यार्थियों के साथ हैं। 800 प्रतिभाशाली विद्यार्थियों में से महज 2 सीटों के लिए मुकाबला था, उसे तुम्हें असफलता या हार के रूप में नहीं लेना चाहिए। जिनका प्रतिभा और परिश्रम के साथ भाग्य ने भी साथ दिया उनका सेलेक्शन हुआ है। याद रखना तुम्हारा रिजेक्शन नहीं। गीता का एक श्लोक है जिसमें कहा गया है कि अधिष्ठान,कर्त्ता,करण,चेष्टा और भाग्य-ये 5 चीजें मिलकर किसी को सफल बनाते हैं-
"अधिष्ठानं तथा कर्त्ता करणम् च पृथग्विधम्
विविधाश्च पृथक् चेष्टा,दैवं चैवात्र पंचमम्।।"
सरल शब्दों में तुम्हें समझाऊं तो प्रयास और प्रसाद दोनों के मिलने से व्यक्ति सफल होता है। प्रयास तुम्हारे वश में है, जबकि प्रसाद ऊपर वाले की कृपा पर निर्भर है। अतः मुझे हमेशा हरिवंश राय बच्चन की वो पंक्ति याद आती हैं जो उन्होंने अमिताभ बच्चन को असफलता से निराश होने पर कही थी-"तुम्हारे मन के अनुसार हो तो अच्छा और मन के अनुसार नहीं हो तो बहुत अच्छा क्योंकि अब परमात्मा के मन के अनुसार हो रहा है।" अमिताभ बहुत जगह रिजेक्ट हुए लेकिन वहां पर उनके मन के अनुसार सफलता मिल जाती तो सदी का महानायक हमें नहीं मिलता।
मेरे भी जिंदगी का अनुभव कहता है कि भगवान असफलता इसलिए देता है क्योंकि इससे बेहतर अवसर देने के लिए उसके पास है।
"क्या कभी तुम जान पाए जीत क्या है,हार क्या है?
इस जरा सी जिंदगी में जिंदगी का सार क्या है??"
पहली बार हार का स्वाद मिलने पर तुम्हें कड़वा लग रहा है। तुम्हें जरूरत है अपनी हार की परिभाषा को बदलने की। इस मानसिकता के निर्माण के लिए एक कहानी सुनो--एक साधु के पास एक बड़ा तेज घोड़ा था। वह आश्रम से कहीं चला गया। गांववाले आकर बोलने लगे कितना बुरा हुआ? साधु ने कहा कि इतना ही बोलो कि घोड़ा चला गया,अच्छा हुआ कि बुरा हुआ तुम नहीं जानते। कुछ दिनों के बाद वह घोड़ा 5 घोड़ियों के साथ आ गया। गांववाले बोले कि "कितना अच्छा हुआ।" साधु ने कहा कि इतना ही बोलो कि घोड़ा 5 घोड़ियों के साथ आ गया। अच्छा हुआ, तुम क्या जानो? उन घोड़ियों पर सवारी करते समय साधु का शिष्य गिर गया, पैर टूट गया। गांव वाले बोले कि "कितना बुरा हुआ।" साधु ने कहा कि तुम नहीं जानते कि बुरा हुआ या अच्छा हुआ। बस इतना बोलो कि पैर टूट गया। कुछ दिन के बाद उस राज्य में अनिवार्य सेना भर्ती नियम के तहत सारे नौजवान पकड़कर युद्ध के लिए भेज दिए गए, पैर टूटे होने के कारण साधु का शिष्य बच गया। फिर गांव वाले इकट्ठा हुए। साधु ने कहा कि सोच समझकर बोलना। अच्छा हुआ या बुरा हुआ ,यह हम नहीं निर्णय कर सकते।
अतः जिगीषा तुम्हारी असफलता मुझे असफलता नहीं दिखाई देती। तुम्हारे जीतने की इच्छा के कारण 800 प्रतिभाशाली छात्राओं में से 2 का सेलेक्शन तुम्हें अपनी हार दिखाई देती है। अपने रिजेक्शन को गले लगाओ और भगवान को धन्यवाद दो कि भारत के सबसे अच्छे शिक्षा संस्थान में तुम्हें पढ़ने को मिल रहा है। असफलता को स्वीकार करते ही तुम निराशा से बाहर आ जाओगी क्योंकि कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है , फल में कभी नहीं-
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन"
इस हार ने तुम्हें जिज्ञासा करना सिखाया और मेरे मन से इतनी अच्छी बातें बाहर आई। इस बार चिंतन मनन करना, और जीवन दर्शन में परिवर्तन करना।
शुभाशीष।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹