"आओ ,आंखें नीची करें"


मणिपुर में जो हुआ, उसका उल्लेख भी करने में शर्म आ रही है। वीडियो इतना वीभत्स और रूह कंपाने वाला है कि सीजेआई ने स्वत:संज्ञान लेकर सरकार से कहा है कि यदि आप कुछ नहीं कर सकते तो हम करेंगे। संवेदनशील हृदयों की पीड़ा इतनी गहरी हो गई है कि गिरती हुई मानवता को देखकर वे जार-जार रोने लगे हैं-


"कलम आंसू बहाता है तो कागज सोख लेता है


कोरे शब्दों में कहां,ऐसी पीड़ा व्यक्त हो पाता है।।"


रात समाचार सुनकर जब सोने गया तो सपने में भी "बचाओ,बचाओ" की चीखें गूंजती रहीं। हद तो तब हो गई जब भीड़ को नपुंसक होकर ताली बजाते देखा।


लेकिन क्या करें,जब सरकार ही बलात्कारियों को संरक्षण देने लगे और समाज उसे संस्कारी बताकर फूलमालाओं से स्वागत करने लगे तो किसी आत्मा की पुकार को कौन सुनेगा?


आखिर दूसरों को सुनाने से फायदा भी क्या! जाति,धर्म के आधार पर हम इतने बंट गए हैं कि पीड़िता एक बेटी और नारी नहीं दिखाई देगी, पहले किसी और जाति,धर्म या क्षेत्र की दिखाई देगी। प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ भी उसकी आह को लोगों तक पहुंचाने के बदले उसकी ऐसी व्याख्या कर देगा कि कुछ वाह-वाह कर उठेंगे।


एक शिक्षा जगत बचा है जो सहानुभूति ही नहीं बल्कि समानुभूति के साथ पीड़ा को महसूस कर सकता है और अगली पीढ़ियों के मन का ऐसा निर्माण कर सकता है कि चीरहरण का आदेश देने वाला दुर्योधन और साड़ी खींचने वाला दुशासन फिर से न पैदा हो। लेकिन वह शिक्षा भी राजनीति के शिकंजे में इस बुरी तरह फंस गई है कि "क्या पढ़ाया जाए"- यह शिक्षाविद् तय नहीं कर पाता। धीरे-धीरे राजनीति तो शिक्षकों को पढ़ाने के मूल अधिकार से भी छद्म रूप से वंचित कर रही हैं। गैर- शैक्षणिक कार्यों में शिक्षकों को लगाकर भावी पीढ़ी के मन निर्माण की जगह अपने लिए वोटबैंक निर्माण का शिक्षासंस्थानों को जरिया बना रही हैं।


आज कॉलेज का वो दिन याद आ रहा है जब एक अनुभूति नाम की बालिका ने अपनी कविता के जरिए पूछा था-


हे द्रौपदी! तूने खुले केश क्यूं बांधे?


आज भी भीष्म चुप हैं और द्रोण नीचे मुंह किए बैठे हैं


फिर भी हे द्रौपदी!तूने खुले केश क्यूं बांधे?


रात भर इस कविता में उठाए गए प्रश्न का जवाब ढूंढता रहा और सपने में द्रौपदी के मुख से जो जवाब मिला ,वह गौर से सुनिए-


हे अनुभूति! मैंने खुले केश इसलिए बांधे


ताकि हर कोई अपना साध्य स्वयं ही साधे।


हर किसी को अपनी लड़ाई स्वयं लड़नी होती है


अपने बुद्धि बल से पांडवी सेना गढ़नी होती है।


नारी शक्ति में मुझे आज भी इतना अप्रतिम विश्वास है


हर अत्याचार पर खुलेंगे केश,यह मेरा दृढ़ विश्वास है।।


हर बेटी जब तक द्रौपदी बनकर अपनी लड़ाई अपने हाथों में नहीं लेती है, तब तक शर्म और बेबसी की इस घड़ी में हम सभी मिलकर - "आओ, आंखें नीची करें।"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹