संवाद


"देशभक्ति Vs विदेशी-नागरिकता"


प्रतिदिन 500 Indians भारतीय-नागरिकता को छोड़कर विदेशी-नागरिकता को ग्रहण कर रहे हैं। ऐसे में "जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी" अर्थात् "जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है" की उक्ति विचारणीय है। आखिर क्या बात है कि भारत-माता और भारत-भूमि को छोड़कर उसके बेटे-बेटियां किसी अन्य देश का नागरिक कहलाना ज्यादा पसंद कर रहे हैं? क्या उनके हृदयों में माता और मातृभूमि के प्रति प्रेम की कमी है? अथवा यहां की व्यवस्था ऐसी हो गई है कि माता और मातृभूमि के प्रति प्रेम के रहते हुए भी प्रतिभाएं मजबूरी में उस देश में जाकर बस जाती हैं,जहां उनकी प्रतिभा खिल सके और उनके साथ न्याय हो सके।


जितने भी नोबेल पुरस्कार विजेता और बड़े पदों पर आसीन व्यक्तित्व हुए हैं, अफसोस की बात है कि अधिकांश भारतीय मूल के होने के बावजूद विदेशी नागरिक बन चुके हैं। कई ऐसी प्रतिभाओं के भी उदाहरण हैं जिन्होंने देश में ही अपनी प्रतिभा को आगे बढ़ाने का प्रयास किया क्योंकि उनके हृदय में जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर थी ; लेकिन उनकी प्रतिभा न तो यहां खिल सकी और न उनके साथ न्याय हो सका। वे यहां की व्यवस्था से निराश-हताश होकर या तो विषाद से भर गए या विक्षिप्त होकर मर गए,जिसमें एक नाम महान गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह का लिया जा सकता है। नासा में अद्भुत काम कर चुके डॉ वशिष्ठ नारायण सिंह ने अमेरिका के ऑफर के बावजूद भारत में आकर काम करने का फैसला किया किंतु न तो उन्हें उनकी योजना को सफल बनाने के लिए उचित सुविधा प्रदान की गई और न ही उनके गिरते मानसिक-स्वास्थ्य को सुधारने के लिए समुचित-चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराई गई, अंततः विक्षिप्तावस्था में पागल होकर वे मरे।


आजादी का अमृत महोत्सव हम मना रहे हैं और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की तीसरी सबसे बड़ी व्यवस्था बनने का डंका बजाया जा रहा है,फिर भी भारतीय प्रतिभाएं विदेशों की ओर क्यों आकर्षित हो रही हैं? क्यों वर्ल्ड क्लास एजुकेशनल इंस्टीट्यूट्स आज भी हमारे पास उपलब्ध नहीं है? क्यों बेहतरी की तलाश में हमारी प्रतिभाएं बाहर में बेहतर अवसर के लिए जा रही हैं?


नालंदा,तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालयों के कारण विश्व की प्रतिभाएं एक समय भारत की ओर आकर्षित होती थीं। जिन ज्ञान-केंद्रों के कारण भारत विश्वगुरु बना था, आज भारत में उन ज्ञान-केंद्रों की दशा अत्यंत दयनीय है। ज्ञान के केंद्र आज राजनीति के शिकार हो चुके हैं और महज डिग्री बांटने वाले केंद्र के रूप में तब्दील हो चुके हैं।


योग्यता को दरकिनार करने वाली व्यवस्था से यदि भारतीय प्रतिभाएं योग्यता को कद्र करने वाली विदेशी-व्यवस्था की ओर पलायन कर रही हैं तो इसमें मूल कारण देशप्रेम का अभाव नहीं है‌; बल्कि अपनी प्रतिभा के साथ न्याय करने का भाव ज्यादा है।


भारत सोने की चिड़िया जब था तो यह स्वर्ग से भी बढ़कर था क्योंकि गुरुकुलों के विकास में लक्ष्मी की सार्थकता मानी जाती थी। भारत का व्यापारी साहित्य-संस्कृति को बढ़ावा देने के कारण ही "श्रेष्ठी" कहा जाता था। मंदिरों में भगवान की आराधना के साथ शिक्षा और कला की सतत साधना चलती थी।


ज्ञान की जगह पर आज राजनीति शीर्ष पर बैठ गई है और बड़े पदों पर बैठने वाले अधिकांश लोगों की डिग्री-योग्यता भी किसी से छुपी नहीं है। "अंधे अंधा ठेलिया,दोनों कूप पड़ंत" की दशा को भारत पहुंच चुका है। लोकतंत्र के नाम पर बन रही भीड़तंत्र की व्यवस्था में ऊंचाई पर जाने वाली आत्माएं नहीं जी सकतीं।


आत्मा को बचाने के लिए और अपनी प्रतिभा को विकसित करने के लिए मां भारती के सपूत अपनी मातृभूमि छोड़ रहे हैं। "सबै भूमि गोपाल की" वाली भावना के साथ कोई कमला हैरिस और कोई ऋषि सुनक विदेशी नागरिकता ग्रहण कर लेता है और वहां अच्छी व्यवस्था के कारण अपनी योग्यता के दम पर शीर्ष पर भी पहुंच जाता है। दिनकर जी लिखते हैं-


"भारत नहीं स्थान का वाचक,गुण विशेष नर का है


एक देश का नहीं शील यह भूमंडल भर का है।


जहां कहीं एकता अखंडित,जहां प्रेम का स्वर है


देश-देश में वहां खड़ा भारत जीवित भास्वर है।।"


जहां कहीं भी गुण, शील,एकता और प्रेम से भरे लोग रहते हैं, वही भूमि भारत बन जाती है। भारतीय संस्कृति कहती है कि पूजा के योग्य या सम्मान के योग्य लोग जहां पर अपमानित होते हैं और अयोग्य लोग सम्मानित होते हैं,वहां पर अकाल,मरण और भय व्याप्त होने लगता है-


"अपूज्या यत्र पूज्यन्ते पूज्यानां तु विमानना


त्रीणि तत्र प्रवर्तंते दुर्भिक्षं मरणं भयम्।।"


"शिष्य-गुरु संवाद"से डॉ सर्वजीत दुबे🙏🌹