संवाद
"भेदभाव कैसे मिटे?"
आईआईटी बॉम्बे में सहपाठियों से जाति और धर्म न पूछने का आदेश जारी किया गया है ताकि भेदभाव की प्रवृत्ति को रोका जा सके। मेरे जेहन में एक प्रश्न उठा- "भेदभाव की प्रवृत्ति क्या आदेश से रुक सकती है?" मेरी समझ यह कहती है कि केवल प्रशासन के आदेश से भेदभाव की प्रवृत्ति को रोका जाना संभव नहीं। इसके लिए परिवेश का निर्माण जरूरी है। ऐसा आदेश बहुत जगह जारी किया गया है और बहुत बार किया गया है किंतु भेदभाव नहीं रोका जा सका।
कुछ स्थानों पर परिवेश का निर्माण ऐसा होता है कि इंसान से इंसान का रूहानी-रिश्ता विकसित होता है। वहां जाति,धर्म,क्षेत्र तो छोड़िए,एक दूसरे का नाम भी नहीं पूछा जाता। ओशो अपने संन्यासियों का नाम बदल देते थे और नाम भी ऐसा कि जाति,धर्म का पता लगाना मुश्किल हो जाता। यही काम हजारों वर्ष पहले बुद्ध ने किया। 10,000 भिक्षु बुद्ध के साथ चलते थे तब भी शांति ऐसी होती थी जैसी निर्जन प्रदेश में होती है।
खेल के जगत में मुझे अनुभव हुआ कि खिलाड़ियों के बीच एक ऐसा संबंध विकसित हो जाता है कि कोई किसी की जाति,धर्म और क्षेत्र की परवाह नहीं करता। 10 वर्षों के खेल जीवन ने मुझे कुछ ऐसा परिवेश दिया कि आज शिक्षा जगत में मैं विद्यार्थी का नाम महज औपचारिकतावश एक बार पूछ लेता हूं ; जाति,धर्म,क्षेत्र का तो ख्याल तक नहीं उठता।
खेल का क्षेत्र हो या कला का या ज्ञान का क्षेत्र हो ; सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर जाता है क्योंकि इन क्षेत्रों में इंसान के बाहरी रूप-रंग पर कम आंतरिक-प्रतिभा पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है। सचिन हों या ब्रैडमैन, लता हों या नुसरत फतेह अली, अब्दुल कलाम हों या आइंस्टीन ; इन खिलाड़ियों,कलाकारों या ज्ञानियों की जाति,धर्म,क्षेत्र पर किसका ध्यान जाता है?
जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग का ध्यान तो राजनीति दिलाती है।अगड़ा-पिछड़ा,हिंदू-मुसलमान शब्दों का प्रयोग क्या सामान्य नागरिक दिन-रात कर रहे हैं? कोई अगड़ों का नेता है तो कोई पिछड़ों का, कोई हिंदू का नेता है तो कोई मुसलमान का, कोई दक्षिण का नेता है तो कोई उत्तर का ; लेकिन सबका नेता कौन है?
संविधान की प्रस्तावना को उसकी आत्मा कहा जाता है। उस आत्मा की आवाज है कि जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग के आधार पर होने वाले भेदभाव को मिटाया जाए ताकि व्यक्ति की गरिमा के साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता सुरक्षित रहे। दुर्भाग्य और दुख की बात है कि उसी संविधान की शपथ लेकर मंत्रिमंडल के निर्माण से लेकर टिकट वितरण तक जाति,धर्म,लिंग और क्षेत्र के आधार पर किया जाता है।
रोटी,कपड़ा और मकान जुटाने में जिनके पैरों में छाले पड़ जाते हैं, उनको अगड़ा-पिछड़ा और हिंदू-मुसलमान की सुध नहीं रहती। जाति,धर्म की शिक्षा तो सियासतदानों द्वारा दी जाती है ताकि वोटों की फसल काटी जा सके।
एडमिशन से लेकर सेलेक्शन और नौकरी तक में जिस जाति की बात को मूलाधार बनाया जा रहा है, उस बात को अचानक व्यवहार में कैसे हटाया जा सकता है?
प्रतिदिन 500 इंडियन भारतीय नागरिकता को छोड़कर विदेशी नागरिकता को ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि वहां सिर्फ उनकी योग्यता को देखा जाता है ; जाति,धर्म,क्षेत्र और लिंग नहीं। इसी कारण विदेशों में सेवार्थी बढ़ते जा रहे हैं और भारत में लाभार्थी। ब्रेन-ड्रेन हमारी राजनीति के लिए मुख्य चिंता का विषय नहीं है क्योंकि वह तो ब्रेनवाश करने में लगी हुई है। भेदभाव मिटाने की चिंता भी किसी शिक्षा संस्थान को हुई है जो कि शुभ है।
किसी भी आदेश के पालन के लिए सम्यक् परिवेश के निर्माण की आवश्यकता होती है जिसका सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा है।भारतीय संस्कृति में आचार्य ऐसे परिवेश का निर्माण करने में सफल होते थे क्योंकि उनके मन, वचन और आचरण में कोई भेद नहीं था।
नालंदा, तक्षशिला जैसे प्राचीन विश्वविद्यालयों और ब्रह्मकुमारी संस्था जैसे आधुनिक गुरुकुलों के द्वारा दी जाने वाली अध्यात्मपरक उदार शिक्षा और आत्मज्ञानी-आचार्यों के माध्यम से ही भेदभाव जड़-मूल से मिटाया जा सकता है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹