संवाद


"सा विद्या या विमुक्तये"


भारतीय संस्कृति के अनमोल सूत्रों में से एक सूत्र यह है कि 'विद्या वही है जो मुक्ति प्रदान करे'। सरल शब्दों में कहें तो "विचार वही है जो स्वतंत्रता प्रदान करे"। दूसरे शब्दों में जो मुक्ति या स्वतंत्रता प्रदान नहीं करता वह अविद्या है, कुविचार है।


स्वतंत्रता के लिए जब संघर्ष चल रहा था तो एक ऐसे मन को तैयार किया गया जो सिर्फ और सिर्फ भारतीय मन था। इस भारतीय मन ने जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग की दीवारें गिरा दी और विविधता में एकता ने स्वतंत्रता की अलख जगा दी।


38 लाख की आबादी वाला मणिपुर हमें चेतावनी दे रहा है कि शरीर के सबसे निचले हिस्से पैर के अंगूठे में भी जख्म हो जाए तो पूरा शरीर जख्मी हो जाता है। भारत माता कराह उठी है क्योंकि दो समुदायों के बीच की दूरियां इतनी बढ़ गई है कि उसे पाटने में बरसों लग जाएं। सशस्त्र बल और सेना की मदद से बहाल की गई शांति असली शांति नहीं है। असली शांति तो तभी स्थापित होगी जब दोनों समुदायों को भारतीय नागरिक होने का एहसास गहरा हो जाएगा।


उस विद्या या उस विचार की आज जरूरत है जो भारतीय नागरिक तैयार करे। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमारे महापुरुषों ने संविधान बनाया था जिसका मूल प्रारंभिक बिंदु है-"हम भारत के लोग......


भारतीय संस्कृति तो हमारे संविधान से भी आगे जाकर उस आत्मा के निर्माण की बात करती है जो परम स्वतंत्र है, सदा मुक्त है। अध्यात्मप्रधान भारतीय संस्कृति को जो संकीर्णता में कैद करना चाहता है, वह हमें गुलामी की ओर फिर से धकेलना चाहता है।


जाति/धर्म/क्षेत्र/लिंग में ही किसी का जन्म होता है किंतु जैसे-जैसे परिपक्वता आती है और सम्यक शिक्षा दी जाती है, वह इनके पार जाने लगता है। हमारे महापुरुषों ने सभी प्रकार के भेदभाव से मुक्ति के लिए जनजागरूकता फैला कर भारतीयों को एक करके ब्रिटिशों के पैर भारत से उखाड़ दिए। छोटे कुएं से निकालकर हमें भारत रूपी आकाश में उड़ने के लिए हमारे महापुरूषों ने उदारविचार रूपी पंख दिए।


अब आकाश सिर्फ भारत का ही थोड़े होता है।आकाश तो आकाश है, जिसकी कोई सीमा नहीं। महाआकाश में उड़ने की सामर्थ्य सिर्फ आत्मज्ञान से आती है; जाति/धर्म/क्षेत्र वाले मन से नहीं।


"न छप्पर हैं, न दीवारें,मगर बेघर नहीं हैं हम


खुला आवास है,आवास को आवास रहने दो।


सितारों को सितारों के हमेशा पास रहने दो


अरे आकाश तो आकाश है, आकाश रहने दो।।


विश्व गुरु भारत ने तो आत्मस्वरूप का बोध कराया था। दुर्भाग्य की बात है कि अविद्या या कुविचार के कारण आज हम अपने भारतीय-स्वरूप को भी विस्मृत कर रहे हैं।


आज जरूरत है वैसे शिक्षकों की जो संविधान की मूल भावना को प्रचारित-प्रसारित करके भारतीय-स्वरूप को जागृत करे। वैसे गुरुओं की जरूरत हैं जो भारतीय-स्वरूप से भी ऊपर ले जाकर हमें हमारे आत्मस्वरूप से परिचय कराए। क्योंकि हमारा सनातन संदेश है कि हम अमृत के पुत्र हैं-"अमृतस्य पुत्रा: वयम्"।


स्वतंत्रता दिवस की सार्थकता इस बात की चिंता और चिंतन करने में है कि अमृत के पुत्रों के मन में नफरत का जहर कौन डाल रहा है?


"तेरे हाथ में पत्थर , मेरे हाथ में पत्थर


जरा तू भी सोच ,जरा मैं भी सोचूं!


तेरे भी शीशे के घर, मेरे भी शीशे के घर


जरा तू भी सोच , जरा मैं भी सोचूं!!"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹