🙏🙏🙏हार्दिक श्रद्धांजलि🌹🌹🌹
"ज्ञान और करुणा की प्रतिमूर्ति थे पाठक जी"
सुलभ शौचालय के संस्थापक डॉ बिंदेश्वर पाठक जी के निधन की खबर ने स्वतंत्रता दिवस की मेरी उमंग को उदासी में तब्दील कर दिया। कभी उनसे मिला नहीं और देखा भी नहीं किंतु नहीं पता कुछ लोगों के कामों को सुनकर और देखकर उनसे आत्मीय लगाव हो जाता है।
आप यदि किसी शहर में गाड़ी से सुबह में उतरे होंगे और आपको फ्रेश होने के लिए सुलभ शौचालय की जरूरत पड़ी होगी तो आप अनुमान लगा सकते है कि 'पहले शौचालय,फिर देवालय' बहुत ही व्यावहारिक अनुभव से निकला हुआ वाक्य है। विद्यार्थी जीवन में हम सभी जब कभी बाहर खेलने जाते थे या परीक्षा देने जाते थे तो सुलभ शौचालय में फ्रेश होकर अपने कार्य को करके बहुत सस्ते में घर लौट आते थे। उस समय चर्चा में श्री बिंदेश्वर पाठक जी का नाम सुनने में आया।
मेरे पटना विश्वविद्यालय के वे छात्र थे। बिहार के परंपरागत ब्राह्मण परिवार में जन्म लेने के बावजूद छुआछूत और मैला ढोने की प्रथा ने उन्हें अंदर से हिला दिया। समाजशास्त्र विषय में मास्टर-डिग्री प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने ज्ञान का उपयोग करुणापूर्ण हृदय के मार्गदर्शन में किया। 1968 में बिहार सरकार के गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति के 'भंगी मुक्ति विभाग' से जुड़ना उनके लिए प्रेरणा-स्रोत बना। खुले में शौच से मुक्ति के लिए उन्होंने सुलभ शौचालय बनवाया।बाहर में जो गंदगी फैलाई जाती थी, सुलभ शौचालय में इकट्ठे उस वेस्ट का उपयोग बायो-ऊर्जा में किया जा सकता है; इस विचार के साथ उन्होंने एक नया वैज्ञानिक कदम उठाया । एक तरफ उनके अभियान से शहर को स्वच्छ रखने में मदद मिलने लगी और दूसरी तरफ बायो ऊर्जा से अंधेरी जगहों पर रोशनी होने लगी।
आगे चलकर यह सुलभ इंटरनेशनल बना और राज्य ही नहीं बल्कि देश की सीमाओं को पार करके अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी पहचान बनायी। संयुक्त राष्ट्र संघ की 'आर्थिक एवं सामाजिक परिषद' ने 'सुलभ इंटरनेशनल सोशल सर्विस ऑर्गनाइजेशन' को विशेष सलाहकार का दर्जा दिया।
राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कौन-कौन से पुरस्कार श्री बिंदेश्वर पाठक को मिले, यह महत्वपूर्ण नहीं है। मेरी नजर में महत्वपूर्ण उनकी यह जीवन-दृष्टि है कि अपने विषय-ज्ञान का उपयोग ऐसा किया जा सकता है कि समाज के अंतिम व्यक्ति का जीवन भी बदल जाए।
कभी-कभी जो काम सरकार नहीं कर पाती है, वह काम परमात्मा की कृपा-प्राप्त एक व्यक्ति कर जाता है। उसका काम जाति,धर्म,क्षेत्र,लिंग की दीवारें गिराकर 'बहुजन हिताय,बहुजन सुखाय' का आदर्श उदाहरण साबित होता है। गटर में उतरकर सफाई करने की कोशिश में आज भी कई सफाईकर्मियों की मौत हो जाती है, वैसे सफाईकर्मियों के जीवन में बदलाव के लिए, परिवेश की स्वच्छता के लिए और समाज में भेदभाव को मिटाने के लिए इस इंसान ने जो दिव्य कार्य किया है, उसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता।
स्वतंत्रता दिवस पर एक तराना सुबह से कानों में गूंज रहा था -'मेरे देश की माटी सोना उगले ,उगले हीरे मोती...... शाम को इस अद्भुत व्यक्तित्व के निधन की खबर सुनकर ऐसा लग रहा है कि भारत ने अपना एक अनमोल हीरा खो दिया।
"एक मौज मचल जाए तो तूफां बन जाए
एक फूल अगर चाहे तो गुलिस्तां बन जाए
एक खून की कतरे में है तासीर इतनी
एक कौम की तारीख का उन्वां बन जाए।।"
सही में खून का एक कतरा पूरे भारतीय कौम के लिए एक 'उन्वां(शीर्षक)' बन गया-'शीर्षक' शिक्षा के सम्यक सदुपयोग का, 'शीर्षक' सेवा-भाव का, 'शीर्षक' भेदभाव मिटाने के गांधी-अभियान का। श्री बिंदेश्वर पाठक जी की माटी तो माटी में मिल जाएगी किंतु उनके सत्कर्मों की खुशबू सदियों तलक सुदूर देशों तक चमन को सुवासित करती रहेगी और कई आत्माओं को प्रेरित करती रहेगी।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹