संवाद
"ज्ञान के मंदिर में नफरत की तालीम"
मुजफ्फरनगर के नेहा स्कूल की घटना हो या जम्मू कश्मीर के कठुआ स्कूल की घटना हो, इन दोनों घटनाओं पर उठा तूफान एक तरफ समाज के जिंदा होने का सबूत है तो दूसरी तरफ शिक्षकों के प्रति आस्था का भी परिचायक है। कोई पूछ सकता है कि इसमें शिक्षकों के प्रति आस्था कहां से दिखाई देती है? मुझे इसलिए दिखाई देती है क्योंकि समाज आज भी शिक्षक को मुहब्बत का मसीहा मानता है, नफरत का पैगाम देने वाला नहीं। विद्यार्थियों के साथ शिक्षक का संबंध तो आत्मीय हो जाता है।
तभी तो बांसवाड़ा जैसी छोटी जगह से और शैक्षिक दृष्टि से राजस्थान के सबसे पिछड़े इलाके से पढ़कर मारिया रतलामी इसरो में चंद्रयान-3 टीम का लीडिंग मेंबर बनकर अपने शिक्षकों के लिए गौरव और गर्व का विषय बनती है। पढ़ाने वाले शिक्षक और पढ़ने वाले विद्यार्थी का मजहब तो किसी के भी ध्यान में नहीं आता। शिक्षक के लिए तो विद्यार्थी अपनी संतति से भी बढ़कर हो जाता है क्योंकि विद्यार्थी ने उसके ज्ञान और प्रेम को ऊंचाइयां दी हैं। जब मारिया रतलामी जैसी विद्यार्थी शिक्षक के पास आती हैं तो उनके हृदय के भाव यह होते हैं कि -
"कल तिमिर को भेद मैं आगे बढ़ूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लड़ूंगा
किंतु मुझको आज आंचल से बचाओ
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।"
लेकिन शिक्षा जगत को आज कैसा दिन देखना पड़ रहा है कि नेहा स्कूल की शिक्षिका और कठुआ स्कूल के शिक्षक अंधकार से घिरे हुए बुझते दीप को जलाने के लिए प्रयास करने के बदले उसे मिटा देना चाहते हैं।
कुछ लोग कहते हैं कि शिक्षक भी इसी समाज का हिस्सा है, अत: समाज की कुछ बुराइयां उसमें भी हो सकती हैं। लेकिन भारतीय संस्कृति का शिक्षा-दर्शन यह कहता है कि शिक्षक समाज से ऊपर उठ जाता है, अतः शिक्षक समाज का अनुसरण नहीं करता बल्कि समाज का पथप्रदर्शन करता है। जरूरत के समय समाज शिक्षक को पुकारता है-
"ऊपर उठ गए हो समाज से तुम यह हकीकत है
आज तुम्हें मेरी नहीं ,पर हमें तुम्हारी जरूरत है।"
सम्यक शिक्षा जाति,धर्म,क्षेत्र इत्यादि सभी बंधनों से मुक्त कर देती है। ऐसी शिक्षा में पारंगत हुआ शिक्षक समाज में रहता तो है ,लेकिन कीचड़ में खिले हुए कमल की भांति।
जीवन में कई प्रकार के शिक्षकों का अनुभव मुझे भी हुआ। शिक्षा को व्यवसाय बनाने वाले शिक्षक भी हमने देखे हैं और शिक्षा को अध्यवसाय मानने वाले शिक्षक भी हमने देखे हैं। दोनों ने मेरे जीवन को बदला लेकिन अध्यवसायी शिक्षक गुरु के समान सदैव हृदय में विराजते हैं।
आज दुर्भाग्य से शिक्षा जगत में ऐसे शिक्षक भी तैयार हो गए हैं जो जीवन को सही राह दिखाने के बजाय विशेष मजहबी विचारधारा के प्रभाव में भटकाने में लगे हुए हैं। कट्टरता के विषवृक्ष को बढ़ाने वाले ऐसे शिक्षक अभी भी बहुत कम हैं। लेकिन अब वे बहुत मुखर हो चुके हैं क्योंकि उन्हें संस्थागत समर्थन मिलना शुरू हो गया है।जब कट्टरता दहाड़ रही हो और उदारता फुसफुसा रही हो तो यह परिवर्तन बहुत बड़े बदलाव का संकेत है।
परिवार और रिश्तेदार में भी कट्टरता और उदारता के बीच एक सतत संघर्ष चल रहा है जो अंदर ही अंदर उबल रहा है, लेकिन यह अभी सतह पर नहीं आया है क्योंकि-
"कुछ चुप हैं ,इसलिए रिश्ते हैं
कुछ रिश्ते हैं,इसलिए चुप हैं।"
प्यार के रिश्ते में दरार नहीं आए, इसलिए जरूरी है कि कुछ बातों पर गहराई से स्थिति स्पष्ट कर दी जाए।
नफरत और मोहब्बत दोनों भाव हृदय में स्थाई रूप से परमात्मा ने सबको दे रखा है। लेकिन नफरत खरपतवार के समान है जो अपने आप उग आती है। बहुत तेजी से फैलती है और बार-बार उखाड़ने पर भी फिर फिर उग आती है। मोहब्बत गुलाब के फूल के समान है। जिसे बड़े जतन से हृदय रूपी जमीन में अंकुरित करना पड़ता है।
शिक्षक का मुख्य धर्म यही है कि नफरत के बीज को दग्ध कर दे और मोहब्बत के बीज को अंकुरित कर दे। इसके लिए शिक्षक ज्ञान रूपी जल से मोहब्बत के बीज का सिंचन करता है, उस पर अभ्यास रूपी खाद भी डालता है। बुरी संगति से अर्थात् खरपतवार से उसकी सुरक्षा भी करता है, इसके लिए परीक्षा लेता है। तब जाकर के बहुत मुश्किल से गुलाब का फूल खिलता है। इसमें शिक्षक का धन,ध्यान और धैर्य सब लगा होता है। जब फूल खिल जाता है तब जगत को उसका सौंदर्य दिखाई देता है और फिजाओं में पुष्प की सुवास जितनी दूर तक जाती है उतनी दूर तक शिक्षक की कीर्ति भी फैल जाती है।
मुजफ्फरनगर अथवा कठुआ के स्कूल में धार्मिक विद्वेष से बच्चों की पिटाई का मामला और वह भी शिक्षिका और शिक्षक द्वारा ; शिक्षा जगत के लिए ही नहीं बल्कि समाज और राष्ट्र के लिए भी बहुत बड़े खतरे की घंटी है।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ सर्वजीत दुबे🙏🌹