Teachers day Special


"आचार्यों का देश भारत"


आचार्य पदनाम मिलते ही खुशी में आकाश की तरफ आंखें उठीं लेकिन कुछ देर के बाद वो ही आंखें धरती में गड़ गईं। खुशी इसलिए कि एक प्रोफेशनल खेल जीवन से प्रोफ़ेसर पद पर पहुंचने की कल्पना नहीं की थी, गम इसलिए कि महाविद्यालय में पढ़ने-पढ़ाने का माहौल खत्म होता जा रहा है।भारतीय संस्कृति में "आचार्य" पद का जो मतलब होता है, वह वही नहीं होता जो इंग्लिश में 'प्रोफेसर' शब्द का होता है। शब्दकोश में तो दोनों शब्द समानार्थी हैं लेकिन जीवनकोश में दोनों में बहुत अंतर है। भारतीय संस्कृति ने आचार्य - "स्वयम् आचरते यस्मात् तस्मात् आचार्य उच्यते" अर्थात् आचार्य वह है जिसका जीवन और ज्ञान एक हो गया हो, उसके मन वचन कर्म में कोई अंतर शेष नहीं रहा। आज प्रोफेसर उसे कहा जाता है जो बड़े-बड़े विचार देता है, भले ही उसका जीवन कैसा भी हो।


आचार्यों का देश भारत आज विचारकों का देश भी नहीं रह गया है। शिक्षक दिवस पर ऐसी बात शिक्षालयों के अनुभव के आधार पर निकल रही है। एक तरफ नए-नए स्कूल-कॉलेज की संख्या बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ शिक्षक और शिक्षण की गुणवत्ता घटती जा रही है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि 20/7/2023 को पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज के प्राचार्य ने समाज और सरकार सभी को एक मार्मिक पत्र लिखकर सबसे गौरवमयी शिक्षा संस्थान को बचाने की अपील की है। मेरा पटना कॉलेज वह शिक्षा-संस्थान है जिसने संपूर्णक्रांति के जनक लोकनायक जयप्रकाश नारायण से लेकर राष्ट्रकवि दिनकर तक और अभी 15 अगस्त को दिवंगत हुए 'टॉयलेट मैन' के नाम से मशहूर सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ बिंदेश्वर पाठक जैसी विभूतियों को पैदा किया। जब शिक्षालय महज कार्यालय बनकर रह जाए तो किस शिक्षक को इस हालात पर रोना नहीं आएगा।


गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्ति के लिए शिक्षक संगठनों की मांग मुखर होती जा रही है। सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के द्वारा गैर-शैक्षणिक कार्यों से मुक्ति का आदेश दिए जाने के बावजूद गैर-शैक्षणिक कार्यों के बढ़ते सरकारी आदेशों को देखने से ही पता चलता है कि पढ़ने-पढ़ाने का काम उनकी नजर में प्राथमिक नहीं है।


ज्ञानप्रधान भारतीय संस्कृति अपने आचार्यों के कारण विश्वगुरु बना था। नालंदा और तक्षशिला विश्वविद्यालय विश्व की सारी प्रतिभाओं को आकर्षित करते थे क्योंकि यहां हर विषय के ऐसे आचार्य थे जिनके ज्ञान का डंका पूरे विश्व में बजता था। सिर्फ विचार से ही नहीं बल्कि अपने आचरण और जीवन से ज्ञान की साक्षात-मूर्ति बने ऐसे आचार्य के पास जो भी आता था, वह इतना पाता था कि उसके विचार ही नहीं बल्कि आचरण और जीवन रूपांतरित हो जाता था।


आज शिक्षकों को किसी भी विषय पर विचार-विमर्श करने के लिए तो दूर पढ़ने और पढ़ाने तक की भी फुर्सत नहीं मिलती। वह तो अपने विषय-ज्ञान को भी भूलता जा रहा है। फिर अपने ज्ञान को जीवन में उतारने के लिए और बांटने के लिए समय कहां? आज का शिक्षक तो महज एक आदेशपालक की भूमिका में रह गया है। आदेश का पालन कर वह सूचनाएं जुटाकर , समय पर बड़े अधिकारी को ऑनलाइन देकर तथा स्प्रेडशीट भरकर अपनी नौकरी तो बचा लेता है किंतु उसकी आत्मा मरती जा रही है। शिक्षक की आत्मा तो जिंदा रहती है -पढ़ने और पढ़ाने से तथा नई पीढ़ियों को संवारने से।


जब शिक्षकों को पढ़ने-पढ़ाने का वातावरण नहीं दिया जाता हो और जब उनकी आंखों के सामने में भावी पीढ़ी क्लास में पढ़कर जीवन को बदलने की जगह स्कॉलरशिप,स्कूटी और मोबाइल लेकर संतुष्ट हो तो ऐसे समय में क्या शिक्षक दिवस पर हमें रोना नहीं आएगा?-


"जो बांटता फिरता था दुनिया को उजाले


उसके दामन में आज अंधेरे किसने डाले?"


'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ. सर्वजीत दुबे


शिक्षक-दिवस चिंतना-हेतु शुभकामना🙏🌹