हिंदी दिवस विशेष
"हिंदी और हिंदू विरोध के मायने"
हिंदी और हिंदू का विरोध दक्षिण में होता रहा है। 'Hindi never,English ever' के स्लोगन के साथ एक नया स्लोगन 'सनातन हिंदू धर्म एक बीमारी है' ने माहौल को गर्मा दिया है। यदि इस विरोध को गहराई से समझा जाए तो यह राजनीतिक विरोध से ज्यादा कुछ नहीं है। किंतु राजनीतिक विरोध जब समाज को अपनी गिरफ्त में ले ले तो राष्ट्र खतरे में पड़ जाता है। राजनीति आज के जीवन में सबसे प्रभावी हो गई है, अतः राजनेता द्वारा दिए गए किसी बयान को हल्के में नहीं लिया जा सकता।
एक तरफ हिंदी और हिंदू का समर्थन करने वाली विचारधारा उभार पर है तो दूसरी तरफ दक्षिण में हिंदी और हिंदू का विरोध करने वाली विचारधारा भी प्रभावी है। भाषा और धर्म दोनों जोड़ने का काम करते हैं लेकिन राजनीति ने इन दोनों को बांटने का औजार बना लिया।
ऐसे में शिक्षा की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। भारतीय संस्कृति ज्ञान-प्रधान रही है, राजनीति-प्रधान नहीं।
हर भाषा का अपना संस्कार होता है। संस्कृत को मां मानने वाली हिंदी की मूलधारा भक्ति रही है। संस्कृत अध्यात्मप्रधान भाषा थी जिसमें भारत की आत्मा बोलती थी तभी तो दक्षिण के शंकराचार्य ने पूरे भारत को जोड़ने के लिए चारों दिशाओं में चार धाम स्थापित किए। उत्तर भारत के संतों कबीर,सूर,तुलसी या दक्षिण भारत के संतो अलवार,नयनार को देखें तो पाएंगे कि दोनों ने भक्ति की धारा से भारत रूपी बगिया को सींचा। इस कारण से भारत रूपी बगिया में इतने प्रकार के फूल खिले की विश्व का यह सबसे सुंदर अनुपम उद्यान हो गया। सबकी बोलियां अलग-अलग थीं लेकिन सबके बोलने का विषय एक था-भगवद्भक्ति।
उत्तर भारत में विभिन्न संतों की बोलियों से जो भाषा विकसित हुई वह हिंदी हो गई। लेकिन हिंदी सिर्फ हिंदुओं की भाषा थी यह कहना सही नहीं होगा क्योंकि मुंशी प्रेमचंद ने कहा है कि लगभग 500 मुस्लिम कवियों ने हिंदी को अपनी कविता से धनी बनाया है।
इस हिंदी ने भारत को भावनात्मक रूप से जोड़ने में इतनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई कि गुजरातीभाषी गांधी और तमिलभाषी राजगोपालाचारी ने इस भाषा को भारत की आवाज माना। बंगाल और महाराष्ट्र ने हिंदी भाषा का समर्थन किया। लेकिन ज्योंही राजभाषा और राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को मान्यता देने की बात उठी त्योंही हिंदी का घोर विरोध शुरू हो गया।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के विरोध के प्रमुख कारणों में से एक कारण है-हिंदी विरोध। आशंका है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में दी जाएगी,इसके बहाने कहीं हिंदी को थोप नहीं दिया जाए।
दरअसल मूल सवाल आजीविका का है।ज्योंही कोई भाषा राजभाषा या राष्ट्रभाषा बनती है तो उस भाषा के जानने वाले लोग सरकारी पदों पर प्रमुखता से बैठ जाएंगे और दूसरी भाषा के लोग पिछड़ जाएंगे। अंग्रेजी के प्रति आकर्षण और उसका प्रचार-प्रसार आज भी इसलिए बढ़ रहा है कि इस भाषा में आजीविका की सबसे ज्यादा संभावना है। तभी तो हिंदी के सबसे बड़े पैरोकार महात्मा गांधी के नाम पर आज राजस्थान में इंग्लिश मीडियम स्कूल खोले जा रहे हैं।
हिंदी बोलने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है और हिंदी का बाजार बहुत बड़ा है, इसलिए हिंदी की उपेक्षा नहीं की जा सकती। लेकिन हिंदी सिर्फ संख्या के बल पर और बाजार के बल पर अपनी महत्ता स्थापित नहीं कर पाएगी। हिंदी की महत्ता तो स्थापित होगी अपनी आत्मिक आकर्षण -"भक्ति की धारा के कारण और संतों के कारण।"
हिंदी फिल्मों का व्यवसाय भी बहुत बढ़ा है और फिल्मों की भूमिका हिंदी को लोकप्रिय बनाने में महत्वपूर्ण है। लेकिन जिस हिंदी ने पुनर्जागरण काल में भारत की आत्मा को जगाया और स्वतंत्रता संग्राम के काल में भारत को एकजुट किया, उस हिंदी भाषा के आधुनिक प्रेमियों ने विज्ञान और तकनीक के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण काम नहीं किया। आंतरिक समृद्धि को बढ़ाने में तो हिंदी आज भी बहुत कारगर है किंतु बाहरी समृद्धि को बढ़ाने में हिंदी प्रेमियों को अभी बहुत कुछ करना है।
हिंदी में राम कथा कहने वाले मुरारी बापू की कथा में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक आ जाते हैं क्योंकि भारतीय संस्कार ने उन्हें उस ऊंचाई पर पहुंचाया है किंतु अंग्रेजी भाषा के परिवेश ने उन्हें अपने अंदर छिपी क्षमता को विकसित करने का बाहर में मौका दिया है।
भारत की सरकारें भी हिंदी भाषा के शिक्षण प्रशिक्षण पर विशेष जोर दे तो हिंदी की प्रतिभाएं विज्ञान के जगत में भी अच्छा काम कर सकती हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि चंद्रयान और आदित्ययान को सफल बनाने वाले अधिकतर वैज्ञानिक सामान्य कॉलेज से पढ़कर आए हैं जहां पढ़ाई का माध्यम सर्वत्र अंग्रेजी नहीं था।लेकिन वास्तविकता यह है कि शिक्षकों की भारी कमी और गैर शैक्षणिक कार्यों में शिक्षकों को लगा देने के कारण शिक्षा की दशा इतनी दयनीय हो गई है कि बांसवाड़ा जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र में स्नातक पास विद्यार्थी आवेदन पत्र भी शुद्ध हिंदी में नहीं लिख पाते हैं। जब तक स्वाध्याय की प्रवृत्ति और मौलिक पुस्तकों की संस्कृति का विकास नहीं होता और क्लास में हिंदी माध्यम से ज्ञान का यज्ञ चलाने का सही माहौल नहीं बनाया जाता तब तक हिंदी दिवस एक औपचारिकता मात्र बना रहेगा।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे
हिंदी दिवस की शुभकामना🙏🌹