अंतर्राष्ट्रीय लोकतंत्र दिवस(15सितं.)


"क्या हमारे डीएनए में लोकतंत्र है?"


भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है।हमारे डीएनए में लोकतंत्र है। लोकतंत्र की पहली लाली हमारे वैशाली के लिच्छवी गणराज्य में फूटी थी। ऐसे वाक्यों को कितनी बार भी दोहराया जाए, लेकिन क्या इससे साबित हो जाता है कि हमारी चेतना लोकतांत्रिक है?


लोकतांत्रिक-चेतना का मतलब है वाल्टेयर का वह प्रसिद्ध कथन जिसमें कहा गया कि-"हो सकता है कि हम आपके विचारों से सहमत न हों किंतु आपके विचारों की अभिव्यक्ति का हम सम्मान करते हैं।"


हेट स्पीच के जमाने में जब एक व्यंग्य कथन के लिए मुख्य विपक्षी पार्टी के मुख्य नेता की संसद सदस्यता जा सकती हो और सुप्रीम कोर्ट तक दौड़ लगानी पड़ती हो तो इससे पता चलता है कि हमारे डीएनए में कितना लोकतंत्र है। जब सरकार से कड़े प्रश्न पूछने वाले पत्रकारों को या विपक्षी नेताओं को किसी केस में फंसा दिया जाता हो तो हमारी लोकतांत्रिक-चेतना का पता चलता है।


अधिकांश घर,परिवारों में स्त्रियों को और बच्चों को बोलने ही नहीं दिया जाता। प्रश्न पूछना तो दूर की बात है।जाति के नाम पर एक समुदाय दूसरे समुदाय को अस्पृश्य घोषित कर साथ चलने से परहेज करता है। मिलिट्री,पुलिस और प्रशासन के संस्थानों में तो सिर्फ सूचना प्राप्त करने का हक होता है,सोचने तक का हक नहीं होता, बोलने की बात तो बहुत दूर की है। सिर्फ "हां" की भावभंगिमा में ही आप सुरक्षित रह सकते हैं।


शिक्षा संस्थानों में तर्क-वितर्क की गुंजाइश होती है। लेकिन वह भी अब वाद-विवाद प्रतियोगिता के आयोजन के दौरान ही दिखाई देती है। 'निंदक नियरे राखिए' का उद्घोष करने वाले कबीर के देश में समालोचकों को भी बर्दाश्त करने की प्रवृत्ति गायब होती जा रही है।


मनुष्य की इस मूल प्रवृत्ति को हमारे ऋषियों ने बहुत पहले पहचान लिया था तभी तो उन्होंने कहा था-"श्रवणं तु गुरो: कार्यम्"अर्थात् 'सुनना कठिन काम है।' असहमति को सुनना तो सबसे कठिन काम है। "ना" सुनना स्वाभाविक नहीं है, बहुत साधना से आता है।


घोषित-आपातकाल का स्वाद यूं ही हमने नहीं चखा। अघोषित-आपातकाल में तो हम सदा रहते हैं। एक प्रश्न उठाने पर पूरी व्यवस्था हिल जाती है। उठाए गए प्रश्न का उत्तर ढूंढने की कोई कोशिश नहीं करता, बल्कि प्रश्न उठाने वाले प्रश्नकर्ता को ही निपटाने की कोशिश किया जाता है।


नचिकेता की कहानी यही संदेश देती है कि पिता से वाजिब प्रश्न पूछने पर पुत्र को यमलोक भेज दिया गया। जबकि नचिकेता ने यही पूछा था कि दूध न देने वाली वृद्ध गायों को दान देकर आप दानी कैसे बन सकते हैं?


निश्चितरुपेण लोकतंत्र राजतंत्र,सामंतीतंत्र और अधिनायकशाही की तुलना में बेहतर शासनतंत्र है लेकिन लोकतंत्र से लोगों का मोहभंग होना शुरू हो गया है। ओपेन सोसायटी फाउंडेशन द्वारा 30 देशों के सर्वे से प्राप्त ताजातरीन रिपोर्ट बताती है कि 42% युवाओं की यह सोच है कि लोकतंत्र जीवन में कोई बड़ा बदलाव नहीं ला सकती, अतः वे सैन्यशासन के पक्ष में है।


भारतीय लोकतंत्र का अपना अनुभव भी यही बताता है कि मेनिफेस्टो में किए गए लोकलुभावन वादे कभी पूरे नहीं होते और वादाखिलाफी की जिम्मेदारी कहीं भी तय नहीं होती। किसी भी पार्टी के पास सत्ता में आने की योजनामात्र होती है, आमूलचूल व्यवस्था परिवर्तन का कोई भी ठोस ब्लूप्रिंट नहीं होता।


कुछ लोगों की नजर में लोकतंत्र अब तो भीड़तंत्र की ओर कदम बढ़ाने लगा है। बहुलतावाद की राजनीति ने विविधतापूर्ण भारत के लिए एक गंभीर संकट खड़ा कर दिया है। तुष्टिकरण की जगह ध्रुवीकरण ने स्थान ले लिया है।


प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ भी बहुत बड़े सवालों के घेरे में है। सूचना प्रधान युग में सही सूचना प्राप्त करना एक बहुत बड़ी चुनौती बन गई है जिससे जनमत का निर्माण होता है।


सभी राजनीतिक दल सिर्फ अपना वोटर तैयार करने के जुगाड़ में है। संविधान में दिए गए अधिकारों को जाननेवाला और अपने कर्तव्यों को निभानेवाला 'भारत का नागरिक' तैयार करने की चिंता अब कम नजर आती है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण शिक्षा की गिरती स्थिति है। खासकर सरकारी शिक्षण संस्थानों में शिक्षकों की भारी कमी और गैर शैक्षिक कार्यों में शिक्षकों को लगाने की नीति ने सजग नागरिक बनने की राह में रोड़ा अटका दिया है।


लोकतंत्र जनता के लिए,जनता के द्वारा,जनता का तंत्र है, लेकिन जब जनता शिक्षित और सजग नहीं होगी तो कैसा तंत्र बनेगा? सच कहें तो कवि धूमल के शब्दों में-


"जनता क्या है?


एक भेड़ है


जो दूसरों की ठंड के लिए अपनी पीठ पर


ऊन की फसल ढो रही है।"


यदि जनता का तंत्र होता तो क्या जनता इतनी बेरोजगारी,इतनी महंगाई और इतनी लाचारी में जीती? कवि धूमल तो अव्यवस्था को देखकर इस हद तक चले गए कि उन्होंने लोकतंत्र को षड्यंत्र करार दिया-


"न कोई प्रजा है ,न कोई तंत्र है


यह आदमी का आदमी के खिलाफ खुला षड्यंत्र है।"


लेकिन भारत की मिट्टी में कुछ ऐसा है जो लोकतंत्र के प्रति हमारी आस्था को जगाती है जिसका सबसे बड़ा उदाहरण सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण है। हमारी आशा का केंद्र गुणवत्तापूर्ण समान शिक्षा है जिससे ऐसे नागरिक तैयार किए जा सकते हैं जो लोकतांत्रिक-चेतना वाले हों।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹