🙏अनंत चतुर्दशी और बारावफात की शुभकामनाएं🌹


"वीणा और वाणी"


वीणापाणि को हमारी संस्कृति ने वाणी की देवी माना है। वीणा और वाणी दोनों की बहुत साधना करनी पड़ती है तब जाकर सुर सधता है।


एक घर में एक बहुत बड़ी वीणा पड़ी हुई थी। एक तो वह जगह घेर रही थी और दूसरी बहुत कोलाहल भी मचा रही थी। कभी किसी बच्चे के छू देने से कर्कश ध्वनि निकल पड़ती तो कभी झाड़ू लगाते समय किसी तार के हिल जाने से कर्णकटु आवाज निकल पड़ती। परेशान होकर घर वालों ने उस वीणा को बाहर पटक दिया। अचानक एक फकीर उस गली में आया और उस वीणा को उठाकर कुछ ऐसा तान छेड़ा कि सभी मंत्रमुग्ध हो गए। घरवाले तो सोच भी नहीं सकते थे कि जिस वीणा से इतनी अशांति फैल रही थी, उसी वीणा में इतनी शांति और आनंद के सुर छिपे हुए थे। घरवालों ने फकीर से दावा किया कि वीणा हमारी है, इसे लौटा दो। फकीर ने कहा कि वीणा तो उसी की है जो इसे बजाना जानता है, जो इसमें छिपे सुर को साधना जानता है।


जिनका सुर नहीं सधता वे असुर अर्थात् राक्षस कहे गए हैं। आजकल असुर वाणी के कारण देश में आग लगी हुई है जिसे बुझाने के प्रयास में सुप्रीम कोर्ट भी बहुत चिंता व चिंतन में पड़ गया है। जब संसद के नए भवन में यह वाणी गूंजी तो पूरा देश ही नहीं बल्कि विश्व भी इसका संज्ञान लेने लगा। जिनकी आत्मा जगी हुई थी उन्होंने तुरंत इस पर खेद प्रकट कर पर्दा डालने की कोशिश की लेकिन धनुष से निकला हुआ बाण और मुख से निकली हुई ज़बान वापस नहीं लौटती। उस पर क्रिया-प्रतिक्रिया का दौर उसे अनंत गुणा कर देता है और दिलों के बीच की दूरियां काफी बढ़ा देता है।


लेकिन इसी संसद में कुछ ऐसी वाणी भी गूंजी हैं जो आज भी दिल के तारों को झंकृत कर देती हैं। अपने ही नहीं पराए भी उस वाणी के मुरीद हो जाते हैं। वह वाणी जिन होंठों से निकलीं वह तो मधुर थीं ही, उनके ह्रदय भी प्रेम से भरे थे। संसद की सुनहरी यादों में सदियों तक उनका जिक्र होता रहेगा।


अफसोस तो इस बात का है कि गीतों में नहीं गालियों में मीडिया की ज्यादा रुचि हो गई है और वह गालियों को सार्वजनिक विमर्श का मुद्दा बना कर सार्वजनिक माहौल को प्रदूषित कर देती है। इससे उनकी टी आर पी भले ही बढ़ जाती हो लेकिन जनसामान्य की रुचियों का परिष्कार नहीं हो पाता।


ऐसे में साहित्य-साधकों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। एक तरफ शुभ-वाणी (best speeches) का प्रचार-प्रसार और दूसरी तरफ जनसामान्य की रुचियों के परिष्कार की दोहरी जिम्मेदारी शिक्षाजगत और साहित्यप्रेमियों को निभानी पड़ेगी। "सत्यम् ब्रूयात् ,प्रियम् ब्रूयात्....एष: धर्म: सनातन:"अर्थात् 'सत्य बोलो और प्रिय बोलो' को हमारी संस्कृति में सनातन धर्म कहा गया है और इस धर्म का पालन करने से ही सबका कल्याण संभव है।


एक चुटकी जहर भी बड़े बर्तन में तैयार किए गए मीठे खीर को जहरीला बना देता है, उसी प्रकार एक जहरीला बोल सद्भाव को बहुत हानि पहुंचा देता है। वाणी की कृपा मानव जाति पर परमात्मा की सबसे बड़ी कृपा है, इसीलिए यह सबसे बड़ा उत्तरदायित्व भी है जिसे हम सबको समझना होगा, जनप्रतिनिधियों को तो विशेष रूप से समझना होगा अन्यथा लोकतंत्र भीड़तंत्र में तब्दील हो जाएगा। तभी तो ज्ञानियों ने कहा है-


वाणी बड़ा अमोल है जो कोई बोलै जानि


हिये तराजू तौल के तब मुख बाहर आनि।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे 🙏🌹