संवाद
"क्या समाज मर गया?"
महाकाल की नगरी उज्जैन में 8 किलोमीटर तक अर्धनग्न अवस्था में मदद की गुहार लगाती बेटी की घटना ने समाज पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर दिया है। किसी पशु से नहीं पूछा जा सकता कि आखिर मदद क्यों नहीं की क्योंकि आखिर वह पशु है, लेकिन मनुष्य को छोड़ा नहीं जा सकता कि आखिर मदद को क्यों बाहर नहीं निकले क्योंकि वह मनुष्य है।
क्या इतना स्वकेंद्रित(self-centred) और संवेदनहीन समाज को समाज कहा जाना चाहिए?
जिस अवस्था में एक कदम उठाना मुश्किल होता है ,उस अवस्था में लगभग 2000 घरों के दरवाजे के सामने से बच्ची मदद की गुहार लगाते गुजरी तो क्या यह सोचने का समय नहीं है कि कौन सी शिक्षा मिली है जिससे मकान तो बन गया किंतु उसमें रहने वाला इंसान सही मायने में इंसान नहीं बन पाया?
विष पीने की क्षमता वाले शिव की नगरी में इतने अशिव और असुंदर लोग कैसे हो गए?
इतने कड़े प्रश्नों का उत्तर देने के लिए उसी इलाके के गुरुकुल से राहुल नाम का एक शख्स निकला जिसने वही किया जो हर इंसान को करना चाहिए था। राहुल का हृदय बच्ची को देखकर पसीज गया और यह समाज भी निरुत्तर होने से बच गया। मानवता मरी नहीं है, वह आज भी राहुल जैसे उंगलियों पर गिने जाने योग्य कुछ लोगों में जिंदा है। जरूरत है ऐसे प्रदीप्त दीप से उन दीपों को प्रज्वलित किया जाए जिनकी आत्मा बुझ गई है।
खबर आ रही है कि बच्ची की मनोचिकित्सा हो रही है ताकि वह बता सके कि उसके साथ क्या हुआ। मेरी राय में समाज की भी मनोचिकित्सा होनी चाहिए ताकि पता चल सके कि-
"क्यूं किसी घर से कोई दौड़ के पास आया नहीं?
नन्हीं सी जान को कलेजे से क्यूं लगाया नहीं??"
यही समाज कुछ दिनों के बाद कन्या पूजन के लिए कन्याओं को अपने घर बुलाएगा, उसके चरण पखारकर उसके सामने शीश झुकाएगा, कन्याओं को जिमाकर दान- दक्षिणा भी पूरा-पूरा चुकाएगा ; लेकिन वक्त पड़ने पर कभी काम नहीं आएगा।-
"क्या ऐसे समाज से देवी कभी प्रमुदित हो सकती है?
क्या ऐसे समाज में फिर से अवतरित हो सकती है??"
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹