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"लक्ष्मी हेतु नारायण-मंत्र"


इंफोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति जी का युवाओं के लिए अपने देश हेतु प्रति सप्ताह 70 घंटे काम करने की सलाह कुछ लोगों के लिए प्रशंसनीय है तो ज्यादातर लोगों के लिए निंदनीय भी। यदि आप लक्ष्मी को पाना चाहते हैं तो नारायण के विचार मेरी दृष्टि में गहराई से और गंभीरतापूर्वक विचारणीय है।


लक्ष्मी समुद्र मंथन से उत्पन्न हुई थी। संदेश स्पष्ट है कि-'उद्योगिनम् पुरूषसिंहमुपैतिर्लक्ष्मी:' अर्थात् उद्योगी पुरुष ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है। लेकिन मुख्य सवाल यह है कि "उद्योग कितनी देर तक,कब तक और किसलिए?" पं.नेहरू ने 'आराम हराम है' का नारा दिया था किंतु भारतीय संस्कृति की गहरी समझ यह है कि काम और आराम में एक गहरा संतुलन स्वस्थ जीवन के लिए जरूरी है।


25 सालों से ज्यादा उच्च शिक्षा जगत में युवाओं के गहरे संपर्क में रहने के बाद मेरा अनुभव यह कहता है कि बचपन से ही दिन-रात पढ़ाई के बाद लाखों की कोचिंग फीस देकर कुछ युवाओं ने इंजीनियरिंग अथवा चिकित्सा अथवा अन्य क्षेत्र की डिग्री तो प्राप्त कर ली किंतु उनके लिए उनकी प्रतिभा का सदुपयोग करने वाला रोजगार उपलब्ध नहीं है। रोजगार मिलता भी है तो काम,वेतन और संतुष्टि में कोई सामंजस्य नहीं है। दूसरी तरफ ऐसे युवाओं को भी देखता हूं जिन्होंने कॉलेज में एडमिशन तो ले लिया लेकिन 10% भी कॉलेज नहीं आते हैं क्योंकि ज्ञान की प्यास उनमें नहीं है। आते भी हैं तो पर्याप्त शिक्षकों के अभाव में सिर्फ उस डिग्री को प्राप्त करने हेतु जिसकी बदौलत कोई भी रोजगार मिलने की संभावना नहीं है।


सरकार की नीतियां भी ऐसी हैं कि गैर-शैक्षिक कार्यों में शिक्षकों को लगाकर सिर्फ सूचनाएं जुटाने और अन्य कामों में उन्हें व्यस्त रखती है जिसके कारण एक तरफ क्लास की कीमत पर कोचिंग फल फूल रहे हैं तो दूसरी तरफ शिक्षकों में भारी असंतोष बढ़ता जा रहा है।


इस पृष्ठभूमि में यह भी ध्यान रखना चाहिए कि ज्यादातर देखने में यह आता है कि किसी नीति और योजना के अभाव में कर्मठ हो या आलसी किसी को भी काम करने की प्रेरणा नहीं मिलती। कर्मठ को यदि मनपसंद काम मिले तो वे काम के घंटे गिनते ही नहीं है। व्यक्तिगत रूप से मैं बहुत शिक्षकों को जानता हूं जो प्रति सप्ताह 70 घंटे से भी बहुत ज्यादा काम करते हैं। जहां तक आलसियों की बात हैं,उनको भी यदि रुचि का काम मिले तो उनके काम के घंटे बढ़ सकते हैं।


काम की खोज ही भारत में एक समस्या बन गई है तो मनपसंद काम की खोज और उसकी उपलब्धता के बारे में क्या कहा जाए। इसकी जिम्मेदारी नीति निर्धारकों को लेनी चाहिए।


जिस शिक्षा के द्वारा मनोविज्ञान के आधार पर मानव की प्रतिभा बचपन में पहचानी जा सकती है और प्रशिक्षण के द्वारा उसको निखारकर ऊंचाइयों पर पहुंचाया जा सकता है, उस शिक्षा को इस देश ने हाशिये पर धकेल दिया है। नालंदा जैसे शिक्षा केंद्रों को देने वाले बिहार में वहां की सरकारी रिपोर्ट कहती है कि शिक्षा की दशा और दिशा दोनों दयनीय है।


जहां तक 70 घंटे प्रति सप्ताह काम करने की बात है और ऐसा नियम निर्धारित करने की बात है,वहां पर प्रथम महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संस्कृति की यह सोच है कि प्रकृति से ही कुछ लोग राजसिक प्रवृत्ति के होते हैं और कुछ लोग तामसिक प्रवृत्ति के। सबको एक ही डंडे से हांकना ठीक नहीं होगा।


दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि जीवन के लिए काम भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना आराम। आखिर मनुष्य और मशीन में यही अंतर है कि मनुष्य सार्थकता की खोज करता है और मशीन सिर्फ काम की।


तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि भारतीय संस्कृति में परिवार और पर्व-त्यौहार के कारण जीवन में सदैव प्रेम और उत्साह बना रहता है। 70 घंटे प्रति सप्ताह काम करने के नियम को थोपने से परिवार और पर्व के लिए समय निकालना मुश्किल हो जाएगा।


चौथी सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इससे कामकाजी महिलाएं सबसे ज्यादा प्रभावित होंगी और होम हाउस बन जाएगा जिससे जीवन रुखा-सूखा हो जाएगा क्योंकि Home is made of love but house is made of bricks only.


काम के घंटे को लेकर औद्योगिक क्रांति के समय से ही संघर्ष चल रहा है और लंबे संघर्ष के बाद प्रति सप्ताह 48 घंटे काम करने का नियम निर्धारित हुआ। लेकिन श्रमिकों और उद्योगपतियों के काम के घंटे और वेतन को देखें तो असमानता इतनी ज्यादा है कि श्रमिकों का जीवन शोषण का पर्याय बन चुका है और उद्योगपतियों का जीवन मुनाफा का। तभी दिनकर जी ने कहा कि-


"श्वानों को मिलते दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं


मां की छाती से लिपट ठिठुर जाड़े की रात बिताते हैं


युवती की लज्जा वसन बेच अब ब्याज चुकाए जाते हैं


मालिक जब तेल फूलेलों पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं।"


कोरोना काल के बाद तो स्थिति चाहे बेरोजगारी की हो या महंगाई की, बहुत भयावह हो चुकी है। उस पर से धर्म और जाति की राजनीति युवाओं के साथ ऐसा क्रूर मजाक कर रही है जिसका असर आगे आने वाली सदियों तक देश को भुगतना पड़ेगा।


किसी विचारक ने कहा था कि भारत एक अमीर देश है, जहां गरीब लोग रहते हैं। इस विचार में मैं इतना संशोधन करना चाहता हूं कि भारत एक अमीर देश है, जहां की राजनीति बहुत गरीब है क्योंकि कर्मठ और प्रतिभाशाली लोगों के लिए चुनाव में टिकट पाना और जीत पाना बहुत मुश्किल है तभी तो धनबल और बाहुबल के आधार पर जीतने वाले सांसदों की संख्या आज ज्यादा है। क्योंकि राजनीति सामाजिक,आर्थिक,शैक्षिक, राजनीतिक सभी क्षेत्रों के लिए नीति और योजना बनाती है इसलिए उसकी जिम्मेदारी भी सर्वाधिक है। जिस राजनीति को देश की आवश्यकताओं और आकांक्षाओं के बीच सामंजस्य बिठाने का काम करना था तथा शिक्षा-स्वास्थ्य को प्राथमिकता पर रखकर आधारभूत संरचना का निर्माण करना था, वही राजनीति जब आपस में गलाकाट प्रतियोगिता में उतर जाए और रास्ता भटकाने लगे तो काम करने वाले प्रतिभाशाली लोगों में गहरी निराशा और हताशा का घर करना स्वाभाविक है।


अच्छे काम और अवसर की खोज में तो प्रतिदिन 500 भारतीय विदेशी नागरिकता ग्रहण कर लेते हैं। क्या उनके दिल में अपनी जननी और जन्मभूमि के प्रति प्यार नहीं है? जन्मभूमि तो स्वर्ग से भी बढ़कर होती है तो फिर बिहार जैसे राज्यों से इतना पलायन क्यों होता है? व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जहां काम को प्रेरणा और पुरस्कार मिले। ऐसी व्यवस्था जहां भी युवाओं को दिखाई देती है,वहां पर वे जाकर सर्वोत्तम सेवा देते हैं। अच्छी कार्य संस्कृति पैदा करने के लिए युवाओं से जितनी अपेक्षा की जरूरत है,उतनी ही अपेक्षा व्यवस्थापकों से भी होनी चाहिए। एक कवि की कुछ पंक्तियों ने मेरा ध्यान खींचा जो काम और आराम के बीच एक संतुलन की मांग करती है-


"एक नया सूरज उगाओ आज अपने देश में


मेहनतों को दो सवेरा और थकन को शाम दो


जिंदगी खुद आदमी की आरजू करने लगे


इस सलीके से सदा हर काम को अंजाम दो।


कामयाबी के लिए गर हो सके इंसान की


आरजू को हौंसला दो , हौंसलों को काम दो।।"


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹