संवाद


"होम-वोटिंग का अनुभव"


होम वोटिंग की सुविधा पहली बार राजस्थान विधानसभा चुनाव2023 में भारत निर्वाचन आयोग द्वारा विशेष रूप से वृद्धों और विकलांगों के लिए प्रदान की गई। सेक्टर मजिस्ट्रेट के रूप में इस प्रक्रिया से जुड़ने के बाद व्यक्तिगत रूप से मुझे कई अनुभव हुए जो चुनाव आयोग,प्रशासन और समाज के लिए विशेष काम का हो सकता है। खासकर 80 प्लस वृद्धों के लिए होम वोटिंग ने संवेदनशीलता और संवादशीलता के लिए एक पर्यावरण और परिवेश बनाया है।


वृद्धाश्रमों की बढ़ती संख्या ने भारतीय समाज और परिवार पर एक प्रश्न चिन्ह खड़ा किया है। संपन्न परिवारों में भी जब वृद्धों की भारी उपेक्षा हो रही हो तो यह मामला जीवन मूल्यों की स्थापना से जुड़ जाता है-


'पत्थरों के शहर में कच्चे मकान कौन रखता है,


घरों में हवा के लिए रोशनदान कौन रखता है?


बहलाकर छोड़ आते हैं वृद्धाश्रम में मां-बाप को


अपने घरों में अब पुराना सामान कौन रखता है??'


पश्चिम की उपयोगितावादी दृष्टि ने भारतीय नई पीढ़ी के चिंतन को भी प्रभावित किया और वृद्धों को अनुपयोगी और भार समझा जाने लगा। भारतीय चिंतना श्रवण कुमार की कथा के रूप में हमारा मार्गदर्शन करती है। गायों और कुत्तों के लिए रोटी बनाने वाले परिवार की परंपरा में यदि बूढ़े मां-बाप के लिए रोटी बनाना भारी लगने लगा तो निश्चितरूपेण भारतीय संस्कृति की सोच से हम दूर जा रहे हैं। दीवार फिल्म का वह प्रसिद्ध डायलॉग जिसमें पथभ्रष्ट विजय (अमिताभ बच्चन) के पूछने पर कि आज मेरे पास बिल्डिंग है, प्रॉपर्टी है,बैंक बैलेंस है बंगला है गाड़ी है, 'क्या है तुम्हारे पास?' ईमानदार कर्तव्यनिष्ठ रवि (शशि कपूर)कहता है कि 'हमारे पास मां है', भारतीय मूल्यों की याद दिलाता है-


'फिर कभी देखा नहीं मां के गले में हार को


भूख के दिन बिक गई जो वह निशानी याद है


वक्त से पहले ढली जो वह जवानी याद है


मुझको अपने जिंदगी की हर कहानी याद है।'


मां-बाप के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता लेकिन जब भौतिकवाद और उपयोगितावाद का मोतियाबिंद आंखों पर छा जाए तो मां-बाप का दिया हुआ प्यार और आसरा दिखना बंद हो जाता है-


'जरा गौर से देख यह छत क्या है


समझ जाएगा कि मां-बाप की शफकत क्या है'


मां-बाप की संपत्ति हर के हिस्से में आ जाती है लेकिन मां-बाप किसी के हिस्से में नहीं आते और इस विषय पर चर्चित फिल्म 'बाग़बान' बन जाती है। परंतु होम वोटिंग के दौरान अनुभव में आया कि अभी भी समाज में कई परिवार ऐसे हैं जो अपने बुजुर्गों का ख्याल बहुत आदर और प्यार के साथ रखते हैं।कई परिवारों ने हमारी टीम के लिए पलक पांवड़े बिछा दिए क्योंकि उनके मां-बाप को मतदान का एक विशेष सुविधा लेकर हम उनके घर गए थे। कुछ लोगों ने तो दिवाली की मिठाईयों को पहले खिलाया तब मतदान करवाया। 'हम ड्यूटी पर हैं' ऐसा कहने के बावजूद और लाख मना करने के बावजूद उनका कहना था कि आप हमारे बूढ़े मां-बाप को इतना महत्व दे रहे हैं तो क्या हम आपका आतिथ्य-सत्कार भी नहीं कर सकते। हमने कहा -'हम अतिथि नहीं,चुनाव-कर्मचारी हैं।' उनका जवाब था- "घर-घर जाकर बूढ़े मां-बाप के वोट दिलवाने हेतु जो इतना कष्ट उठाते हैं , वे सिर्फ कर्मचारी नहीं हो सकते।"


वोट डालने के दिन तो कुछ परिवारों ने अपने वृद्धों को नहला-धुलाकर नए कपड़े पहना रखे थे और उन विशेष लम्हों को कैमरे में कैद कर रहे थे। पोलिंग पार्टी को भी ऐसा अनुभव हो रहा था कि हम किसी पारिवारिक पार्टी में आए हैं क्योंकि सम्मिलित रूप से फोटो सेशन हो रहा था। परिवार वालों की सोच यह थी कि वृद्धों के महत्व के और खुशी के ऐसे लम्हे मुश्किल से मिलते हैं।


होम वोटिंग का विचार तो निश्चितरूपेण प्रशंसनीय हैं किंतु जिन कर्मचारियों के बलबूते पर यह व्यवहार में आया है, उनकी मेहनत और तपस्या विशेष रूप से अभिनंदनीय है। पहले प्रयोग में यह संख्या सीमित थी, इसके बावजूद चुनौतियां असीमित थीं। आने वाले लोकसभा चुनाव में यह संख्या बहुत बढ़ सकती है। तब सीमित कर्मचारियों के आधार पर सीमित समय में सीमित संसाधनों के द्वारा लोकतंत्र का यह यज्ञ एक चुनौतीपूर्ण यज्ञ होगा।


विशेषरूप से अधिकतर शिक्षकों द्वारा संपादित की जाने वाली लंबी चुनावी प्रक्रिया शिक्षा जगत की भारी कीमत पर सफल और संपन्न होता है। यह विचारणीय प्रश्न है कि पुरानी पीढ़ी के लिए होम-वोटिंग की प्रक्रिया लाने वाली संवेदनशीलता नई पीढ़ी की शिक्षा-प्रक्रिया के प्रति भी कितनी संवेदनशीलता दिखाता है। क्योंकि भारतीय संस्कृति की श्रवण कुमार की कथा को यदि पुनर्जीवित करना है और परिवार नामक संस्था को बचाना है तो उसका सबसे सशक्त माध्यम वह शिक्षा होगी जिसमें शिक्षित होकर एक संवेदनशील व संवादशील चुनाव आयोग,प्रशासन और समाज तैयार होता है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹