संवाद
"मजदूरों की जिंदगी से उठे सवाल"
दिवाली के दिन से टनल में फंसे मजदूरों के बचाव कार्य की सफलता ने मेरी आंखें आकाश की तरफ उठा दीं और मुख से निकला-'जाको राखे साइयां,मार सके ना कोय'. 17 दिनों की अंधकारपूर्ण जिंदगी के बाद जो जीवन का सूरज निकला,वह काफी मेहनत और मशक्कत के बाद निकला,जिसके लिए बचाव टीम के सारे सदस्यों के साथ विशेष रूप से रैट माइनर्स बधाई के पात्र हैं।
आपदा प्रबंधन के कई अध्याय पढ़ने के बाद जो कुछ समझ में नहीं आ रहा था, वह बात आपदा प्रबंधन की इस सफलता ने समझा दिया। जहां आधुनिकतम मशीनें सफल नहीं हो सकीं,वहां मैन्युअल वर्किंग ने फिनिशिंग टच देकर यह दिखा दिया कि सब कुछ मशीन ही नहीं कर सकती।
मजदूर और उनके परिवार के ही नहीं बल्कि हर संवेदनशील लोगों की आंखों में खुशी के आंसू हैं। जाति,धर्म,क्षेत्र इत्यादि की दीवारें मिटाकर सहानुभूति ही नहीं बल्कि समानुभूति के अनुभव से देश गुजर रहा है। ऐसे में कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न भी देश के सामने तैर रहे हैं,जिसे कई पर्यावरणविद् लगातार अपने लेखों में उठाते रहे हैं, उनमें से एक प्रश्न है-"आखिर प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कहां तक और कब तक?"
भारतीय संस्कृति में हिमालय को महज पहाड़ नहीं बल्कि 'देव' कहा गया है जिनकी पुत्री का नाम पार्वती हैं जिनके पति शिव हैं। ऐसे पर्वतों के सीने चीरकर हम कई लेन वाले चौड़े रास्ते बनाते हैं, उनके अंतःस्थल में छेद कर सुरंगे बनाते हैं और हरे-भरे पेड़ों को काटकर आलीशान होटल और पर्यटन स्थल बनाते हैं।
इसका परिणाम जोशी मठ में आई दरारों से लेकर हिमाचल में आई भयंकर तबाही के रूप में हम तुरंत देख चुके हैं।
पर्यावरणविदों और शिक्षाविदों के विचारों को पढ़ने और सुनने के बाद विद्यार्थी के रूप में मुझे यही सीखने को मिला कि एक तरफ हम विकास के नाम पर होने वाले खनन इत्यादि कार्यों से आपदा को निमंत्रित करते जा रहे हैं और दूसरी तरफ आपदा प्रबंधन पर विशेष कार्य करते जा रहे हैं। आपदा प्रबंधन के कारण 41 मजदूरों की जिंदगियां तो बच गई लेकिन प्रकृति के नाराज होने से भूस्खलन,भूकंप और बाढ़ के कारण जिन हजारों लोगों की जिंदगियां चली गईं, क्या उस प्रश्न पर विचार नहीं होना चाहिए?
पश्चिम की विज्ञानप्रधान दृष्टि में प्रकृति को जीतने की मंशा है। पश्चिम के बड़े विचारक बर्ट्रेंड रसेल ने किताब लिखी जिसका नाम है- प्रकृति पर जीत (Conquest of nature)। पूरब की धर्मप्रधान दृष्टि में प्रकृति ही परमात्मा है। उसको जीतने की हम सोचते भी नहीं बल्कि उसके साथ जीने की हमने कला विकसित की। तभी तो गंगा को माता कहा और पर्वतों को पिता कहा। हमारे शिक्षा-संस्थान प्रकृति की गोद में होते थे और वहां ज्ञान के लिए होने वाले तपस्या के स्थल को 'तपोवन' कहा जाता था। जहां पेड़-पौधे और पशु-पंक्षी के साथ मानव का रिश्ता सहोदरों के समान होता था। तभी तो शकुंतला बिना पौधों को जल पिलाए स्वयं जल नहीं ग्रहण करती थी और जिसके पतिगृह जाने के अवसर पर वियोगजनित दुख से मृग अपने मुख के ग्रास को उगल देते हैं। जिस शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर भारत देश का नामकरण हुआ, उस भारत देश में पेड़-पौधे ही नहीं बल्कि जंगल के जंगल काट दिए जाते हैं और पशु-पक्षियों के आवास उजाड़ दिए जाते हैं।
मजदूरों की जिंदगी बच जाने की खुशी हमारी क्षणिक न हो बल्कि चिरस्थाई हो, इस हेतु प्रकृति को बचाने की विशेष पहल होनी चाहिए।इसके लिए हमें पर्यावरणविदों और शिक्षाविदों के बताएं विचारों को प्राथमिकता देनी होगी। अन्यथा हर बार यह सवाल उठेगा-
हिमालय को हिमालय सा दर्द किससे मिलता है?
इस विकास का विनाश से यह कैसा रिश्ता है??
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹