🙏मतगणना की शुभकामना🙏


संवाद


"फलातुर मन और मूल्यों की राजनीति"


विधानसभा चुनावों के नतीजे 3 दिसंबर को आ जाएंगे, लेकिन नतीजे को सुनने के पहले 'मन कैसा होना चाहिए?', यह विचारणीय विषय है। उम्मीदवार तो तनाव में हैं ही, उनके प्रशंसक भी उनसे कम तनाव में नहीं है। क्योंकि फलातुरता इतनी बढ़ गई है कि हर एक को जीत चाहिए और किसी भी कीमत पर चाहिए।


ऐसे में परिणाम यदि वर्ल्ड कप के फाइनल की तरह हो तो गहरी निराशा ही नहीं,हिंसा भी घट सकती है।


जबकि कृष्ण का गीता में दिया गया सार संदेश यही है कि लाभ हानि,जय पराजय में सम बने रहो; 'समत्वं योग उच्यते'‌‌।


लेकिन खेल के मैदान की हार को जब हम नहीं पचा सकते तो चुनाव के परिणाम को हम कितना पचा पाएंगे?


किंतु भारत देश से यह उम्मीद की जा सकती है क्योंकि जनमत के बाद सत्ता परिवर्तन भारत में कभी भी हिंसक नहीं हुआ‌। कारण यह है कि राम और कृष्ण का यह देश है।


उस राम का जिनका मंदिर तैयार हो चुका है। जो राम राज्याभिषेक की खबर से अहंकार से नहीं भरे और वनगमन की खबर से अवसादग्रस्त नहीं हुए-


'प्रसन्नतां यां न गताभिषेकत:न तथा मम्लौ वनवासदुखत:'


यह उस कृष्ण का देश है जो अपने धर्म के निर्वाह के लिए महाभारत युद्ध में भाग ही नहीं लेते हैं बल्कि प्रेरणा देकर युद्ध से भाग रहे अर्जुन को उसके लिए तैयार भी कर देते हैं।


राम और कृष्ण के लिए जीवन एक लीला से ज्यादा नहीं था। उन दोनों ने जीवन को भी खेल की तरह खेला और हम ऐसे अभागे हैं कि खेल को भी जीवन मरण का प्रश्न बना दे रहे हैं। फिर राम और कृष्ण का यह देश कहां रहा?


एग्जिट पोल, टीवी,सोशल मीडिया और समाचारपत्र में जीत और हार शब्द का इस्तेमाल हो रहा है। भाषाशास्त्र के दृष्टिकोण से सोचें तो यह महज एक चुनाव है। इस चुनाव में खड़े उम्मीदवारों को अपने-अपने समर्थकों का मत हासिल होता है , उनमें उन्नीस-बीस (19-20) हो सकता है। लेकिन 19 प्रतिशत मत पानेवाला हार गया और 20 प्रतिशत मत पानेवाला जीत गया ; यह कहना न्यायसंगत नहीं है।


लेकिन जीत हार की भाषा का ही सब जगह प्रयोग होने लगता है। परिणामस्वरुप जीतने वाला अहंकार से भर जाता है और हारने वाला अवसादग्रस्त हो जाता है। जनता के सेवक को दोनों ही बातें शोभा नहीं देती।


सेवा के लिए सत्ता और पद होना ही चाहिए, ऐसी मानसिकता आधुनिक समय में तैयार की गई है। अन्यथा हमारी संस्कृति में सेवा करने वाला सत्ताविहीन हो अथवा सत्तासीन हो, कोई अंतर नहीं पड़ता। स्वतंत्रता की लड़ाई में ऐसे ही सेवकों ने भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्ति दिलाई। रामराज्य की माला आज भी इसीलिए जपी जाती हैं।


तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है-


'आगम निगम प्रसिद्ध पुराना,


सेवाधरम कठिन जग जाना'


अर्थात् सेवाभाव संसार में मिलना कठिन है क्योंकि इसमें कुछ पाने का भाव नहीं बल्कि देने का भाव होता है। सेवाभाव हृदय में उत्पन्न हो गया तो स्वतंत्रतानायकों ने सत्ता को छोड़कर जनता की सेवा की। आखिर सुभाष चंद्र बोस ने इसी सेवा भावना से प्रेरित होकर आईसीएस की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और 'नेताजी' उपनाम से लोकप्रिय हो गए।


जबकि आज 'नेताजी' शब्द आदरास्पद नहीं रहा क्योंकि 'किस्सा कुर्सी का' ऐसा हुआ कि यह शब्द विवादास्पद और हास्यास्पद हो गया।


फिर से इस शब्द को पुरानी गौरवगरिमा मिल सकती है। इसमें पहली भूमिका साहित्य की होगी और दूसरी भूमिका धर्म की होगी। साहित्यकार 'जीत' और 'हार' शब्द का प्रयोग नहीं करें बल्कि इस बात को हाइलाइट करें कि कितना प्रतिशत मत के साथ कौन उम्मीदवार कहां खड़ा है। जिस लोकतंत्र में अंतिम जन का ख्याल रखने की बात होती है, वह लोकतंत्र अल्पमत का ख्याल कैसे छोड़ सकता है। बहुमत का महत्व है किंतु अल्पमत का भी अपना महत्व है।


दूसरी भूमिका धर्म की यह होगी। यह याद दिलावें कि 'कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल में नहीं'. फलासक्ति के कारण किसी भी कीमत पर जीत की तैयारी की जा रही है, जो देश के लिए शुभ नहीं है। अभी से नेताओं की बाड़ेबंदी और रिसॉर्ट की खोज लोकतंत्र को रसातल की ओर ले जाएगी। सच्चा नेता वही है, जो देश को सही रास्ता दिखाए। सिर्फ चुनाव जीतने से कोई सच्चा नेता नहीं बनता। लोकतंत्र में बहुमत का शासन होता है यह हम जानते हैं किंतु भारत का आदर्श वाक्य 'सत्यमेव जयते' है , यह भी हम जानते हैं। भारतीय संस्कृति में सत्य सबसे बड़ा धर्म है। और यह सत्य बहुसंख्यक का मोहताज नहीं होता।


'हम भारत के लोग' सिर्फ संख्या नहीं है और भीड़ भी नहीं है जो मूल्यविहीन होकर किसी भी तरफ हो जाएं। मूल्यों के लिए हम भारत के लोगों ने संविधान को अधिनियमित,अंगीकृत और आत्मार्पित किया है।-


'आओ! उन मूल्यों की जोत फिर से जगाएं


जिनके लिए महापुरुषों ने अपने लहू बहाए।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹