संवाद


"मां-बाप पर सुप्रीम टिप्पणी"


कोचिंग-संस्थान का दबाव नहीं बल्कि मां-बाप का दबाव बच्चों की आत्महत्या के पीछे मुख्य कारण है,सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी हमें चौंकाती भी है और नए सिरे से सोचने पर मजबूर भी करती है।


मेरी नजर में बच्चों पर दबाव तो हैं ही अन्यथा बच्चे आत्महत्या जैसा कदम क्यूं उठाते?


अब यह दबाव कोचिंग का ज्यादा है या मां-बाप का; इस पर राय अलग-अलग है। कोचिंग-संस्थान को जिम्मेदार मानने वालों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी और राज्य सरकार ने भी कोचिंग संस्थानों पर लगाम लगाने के लिए नियम बनाए थे।


आखिर इस समस्या का समाधान क्या है?


समाधान यह है कि शिक्षा के नाम पर जो कुछ हो रहा है, वह शिक्षा के मूल उद्देश्य के विपरीत है, उसे रोका जाए। शिक्षा संस्थानों में विद्यार्थी और शिक्षक के बीच प्रगाढ़ संबंध बनाने वाले क्लासेज को पुनर्स्थापित किया जाए। गैर-शैक्षिक कार्यों से शिक्षकों को मुक्त कर सिर्फ विद्यार्थी पर ध्यान देने के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाई जाए। शिक्षाविदों की नजर में जो जीवन के लिए हो और जीवन को निर्भार बनाए, वह शिक्षा है। जो धन,पद,प्रतिष्ठा से पहले तुमको खुद से मिला सके,वह शिक्षा है‌। हृदय से निकले अपने शब्दों में कहूं तो-


'जो तुमको खुद से मिला सके वही शिक्षा है,


अन्यथा एक भिखारी की दूसरे भिखारी को दी गई भिक्षा है।'


आजकल शिक्षा के नाम पर व्यावसायिक शिक्षा चल रही है।व्यावसायिक-शिक्षा व्यवसायविशेष के उद्देश्य को साधने वाली होती है,इसलिए भारी दबाव बनाने वाली हो जाती है। इसमें महत्वाकांक्षाओं को हवा दी जाती हैं ताकि भारी कीमत वसूली जा सके।सरकारी शिक्षा संस्थानों को पंगु बनाकर निजी शिक्षा संस्थानों को फलने-फूलने का मौका दिया जाता है। इसकी अंतिम परिणति डमी क्लासेज और बढ़ते कोचिंग संस्थानों के रूप में देखने को मिलता है।


बाह्य परिवेश को जानबूझकर प्रचार-प्रसार द्वारा बहुत ज्यादा प्रतिस्पर्धात्मक बना दिया गया है। ऐसे में परिवार का परिवेश भी और मां-बाप का संदेश भी प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने वाला हो तो किशोर मन टूट जाता है। परिवार का परिवेश प्यार भरा होना चाहिए और मां-बाप का संदेश भी सिर्फ सफलता पर जोर देने वाला नहीं, बल्कि सुफलता को बढ़ावा देने वाला होना चाहिए। बच्चा पढ़ाई के समय का सदुपयोग कर रहा है और संस्कारयुक्त ढंग से जी रहा है तो उसे हर प्रकार का संबंल मां-बाप द्वारा मिलना चाहिए। मां-बाप को यह देखना चाहिए और पूछना चाहिए कि साधना कैसी चल रही है? लेकिन मां-बाप पूछने लगते हैं- रैंक कैसा मिल रहा है? मां बाप को यह समझना चाहिए कि बच्चे साधन नहीं है,आपकी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए। बच्चे साध्य हैं, जिन्हें साधन बनाना किसी आत्मा को वस्तु के समान समझना है। परमात्मा ने उस आत्मा में एक विशेष प्रतिभा देकर भेजा है, उसकी खोज मां-बाप को शिक्षकों के सहयोग से करनी चाहिए।


समाज में बातचीत का मुख्य मुद्दा यही नहीं होना चाहिए कि किसका बच्चा क्या बन गया बल्कि यह भी होना चाहिए कि किसका बच्चा कैसा है? व्यक्तित्व का मूल्यांकन जब सिर्फ पद के आधार पर होने लगता है,तो चरित्र गौण हो जाता है। जब चरित्र गौण हो जाए तो भ्रष्टाचार,अनैतिकता,अवसाद और आत्महत्या बढ़ने लगती है।


बाजार से प्रतिस्पर्धा को हटाया नहीं जा सकता लेकिन परिवार से प्रतिस्पर्धा को हटाना और प्यार को बढ़ाना अपने वश में है।


'एक अनार,सौ बीमार' की जगह 'एक अनार,लाखों बीमार' हो जाए तो वातावरण भारी दबाव से भर जाता है। लेकिन भारी दबाव के वातावरण में भी तनावरहित होकर अपने कर्तव्य-पथ पर आगे बढ़ते रहने की कला पारिवारिक परिवेश और सम्यक-शिक्षा से आती है। मां-बाप और परिवार की प्राथमिक जिम्मेदारी बनती है कि उस सम्यक-शिक्षा का वातावरण घर में बनाएं, तभी बच्चा खुलकर अपने मन की बात बता सकेगा और कह सकेगा-


'कल तिमिर को भेद मैं आगे बढ़ूंगा


कल प्रलय की आंधियों से मैं लड़ूंगा


किंतु मुझको आज आंचल से बचाओ


आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹