संवाद


"राजयोग में बड़ा प्रयास या प्रसाद?"


विष्णुजी, मोहनजी के बाद अंतिम पंक्ति से पहली पंक्ति के सबसे बड़े नेता बने भजनजी ने मेरे जेहन में एक प्रश्न खड़ा कर दिया-'राजयोग में बड़ा प्रयास या प्रसाद?'. जीवन का लंबा अनुभव समेटे हुए कई विधायकों का समर्थन हासिल होने के बाद भी मुख्यमंत्री की रेस में सबसे आगे चलने वाली नामीगिरामी शख्सियतें अपने अथक प्रयास के बावजूद मनोवांछित फल से वंचित रह गईं। दूसरी तरफ वे लोग जो दूर-दूर तक चर्चा में नहीं थे और राजनीतिविज्ञान के पंडितों की कुंडली में जिनका नाम नहीं था,वे मुख्यमंत्री बन गए। चौंकाने वाली इस घड़ी में जब सारे प्रयास धरे के धरे रह जाते हैं और एक प्रसाद करामात कर जाता है तो मन बुदबुदाने लगता है-


चरन कमल बंदौ हरि राई।


जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, आंधर कों सब कछु दरसाई


बहिरो सुनै, मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई।।


पश्चिम की दृष्टि कर्म को ही सब कुछ मानकर चलती रही है लेकिन पूरब की दृष्टि में मनुष्य के कर्म से जो मिलता है, वह प्रसाद से प्राप्त उपलब्धि के सामने में बहुत छोटा पड़ जाता है।


भारतीय संस्कृति पलायनवादी नहीं है किंतु बहुत गहरे अर्थ में रहस्यवादी है। किसने सोचा था कि रामकृष्ण मिशन की दहलीज पर जाने वाला नरेंद्र राजनीति के क्षेत्र में नरों में इंद्र साबित होंगे और उड़ीसा के आदिवासी समाज में पली-बढ़ी महिला माननीया द्रौपदी मुर्मू जी महामहिम बन जाएंगी।


इसका मतलब कदापि यह नहीं है कि कृपा ही सब कुछ है। व्यक्ति की योग्यता को दरकिनार नहीं किया जा सकता। आखिर किसी की कृपा प्राप्त करने के लिए भी तो योग्यता चाहिए-


यूं ही नहीं आता चेहरे पर नूर ए खुदा


वफादिल होना भी लाजिम है उस इनायत के लिए।


सिर्फ अपने पुरुषार्थ पर जिनको भरोसा होता है, अहंकार उन पर थोड़ा बहुत हावी हो ही जाता है। और जो पुरुषार्थ को पूरा छोड़ देते हैं,वे आलस्य के पराधीन हो जाते हैं।


भारतीय संस्कृति सब कुछ परमात्मा पर छोड़कर निरंतर कर्म करते रहने की प्रेरणा देती हैं। अर्थात् अहंकार छोड़कर कर्म करते रहो और कहते रहो-


'त्वदीयं वस्तु गोविंद,तुभ्यमेव समर्पये।'


इस भाव से किए गए कर्म का बीज जब परमात्मा की कृपा से अंकुरित होता है तो वटवृक्ष बन जाता है और उस पर बहुत बड़े फल लगते हैं। ऐसे में कर्त्ताभाव नहीं रहता। कर्त्तापन जाते ही इंसान दूसरे प्रकार का हो जाता है और वह सोचने लगता है कि-


अपना क्या है इस जीवन में,सब कुछ लिया उधार


सारा लोहा उन लोगों का , अपनी केवल धार।।


भीष्म,द्रोण,कर्ण,अश्वत्थामा जैसे महारथियों से सजी कौरव सेना को कृष्ण-कृपा से हराने वाले गांडीवधारी अर्जुन को भीलवाड़ा के पास भीलों ने लूट लिया तो मानना पड़ता है कि-


'मनुज बली नहीं होत है , समय होत बलवान


भीलन लूटे अर्जुन को वही गांडीव,वही बाण।'


यह समय युवाओं का है और एक युवा देश को अपनी युवा पीढ़ी में भरोसा जताना चाहिए।यही समय की मांग है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹