संवाद
"चिंता और चिंतन"
स्कूलों की तरह कॉलेजों में भी रीडिंग कैंपेन चलाने की जरूरत है क्योंकि वागड़ की शैक्षिक-स्थिति दयनीय है। आवेदनपत्र में वर्तनी- अशुद्धि तो देखने को मिलती ही है,जब विद्यार्थियों को कुछ पढ़ने को कहा जाता है तो उनकी उच्चारण-अशुद्धि और भी चिंता उत्पन्न करती है। सुखद बात यह है कि एक विद्यार्थी ऐसा भी मिल जाता है जो शुद्ध उच्चारण भी करता है और शुद्ध लिखता भी है। क्लास में ऐसे ही विद्यार्थी को आगे करके अन्यों को प्रेरित किया जा सकता है...
प्राचार्य की कलम से....
जेल की दीवारों के भीतर चल रहा कन्या महाविद्यालय का छोटा सा प्रांगण भी दिखाई दे रहा है और मुझे विराट खुला आकाश भी दिखाई दे रहा है। कन्याओं की परिस्थिति देखकर चिंता भी होती है लेकिन उत्साही शिक्षकों के मार्गदर्शन में समर्पित कन्याओं की उपलब्धि और उमंग देखकर मेरे अंदर चिंतन भी उमड़ने लगता है। चिंता और चिंतन में अंतर बहुत बारीक है।
चिंता में भविष्य का भय सामने होता है लेकिन चिंतन में भविष्य की योजना। इस अवसर पर याद आती है मुझे बिहार की ज्योति नामक लड़की जो कोरोना काल में पिता को बीमार देखकर चिंता में पड़ी लेकिन साइकिल लेकर लॉकडाउन के काल में हरियाणा से बिहार के लिए पिता को पीछे बिठाकर निकल पड़ी। आखिर चारों तरफ अंधकार की परिस्थिति में चिंताग्रस्त माहौल से बाहर निकलने का चिंतन ज्योति को कहां से आया? वह इस बात से आया कि लॉकडाउन के हालात में उसने चिंतन शुरू किया कि मैं क्या कर सकती हूं? सीमित साधन में से असीमित परिणाम कैसे निकल सकते हैं?
बस अपनी साइकिल पर बीमार पिता को बिठाकर मंजिल की ओर निकल पड़ी। अपने ऊपर भरोसा रखा और ईश्वर के ऊपर श्रद्धा। चिंता से उपजने वाले सारे भय को दरकिनार कर ऊंचे नीचे रास्ते को पार करके आगे बढ़ती गई। लगभग 1500 किलोमीटर की आठ दिन की यात्रा में 13 वर्ष की बच्ची को कई अनुभवों से गुजरना पड़ा। लेकिन उसने जिद कर ली थी-मंजिल को पाने की। फिर उसकी ऊर्जा सकारात्मक होकर चुनौतियों से सबक सीख कर आगे कदम बढ़ाने लगी। अंधेरे से शुरू हुआ यह कदम उसे ऐसे उजाले में ले आया कि राज्य और राष्ट्र उस पर गर्व करने लगा और उसे ब्रांड एंबेसडर बनाया गया। एक तरफ प्रधानमंत्री मोदी ने मन की बात में उसका नाम लिया तो दूसरी तरफ अमेरिकी राष्ट्रपति की बेटी इवांका ट्रंप ने उसकी हिम्मत की तारीफ करते हुए उसका फोटो ट्वीट किया।
संस्था-प्रधान के रूप में मैं यही संदेश देना चाहता हूं कि बालिकाओं की प्रतिकूल परिस्थिति और सामाजिक सोच ऐसी है कि चिंता उत्पन्न होना स्वाभाविक है। लेकिन चिंता का एक उजला पक्ष भी होता है-
"सत्पथ ओर लगाकर ही ,
जाती है हमें जगाकर ही।"
बस शर्त इतनी है कि चिंताग्रस्त होकर बैठ मत जाना। चिंता को चिंतन में तब्दील कर सारी ऊर्जा को कदम दर कदम मंजिल की ओर जाने में लगा देना। क्या पता अपने पर भरोसा रख कर ईश्वर की कृपा से बढ़ाया हुआ तुम्हारा कदम अंधकार से ज्योति की ओर तुम्हें ले जाए-
"तमसो मा ज्योतिर्गमय।"
डॉ सर्वजीत दुबे की कलम से