संवाद


"विवेक-दृष्टि में हिंदू धर्म"


'विवेकानंद' शब्द का अर्थ मेरी दृष्टि में यह है कि यदि विवेक जीवन की नींव बने तो आनंद उसका शिखर होगा। विवेक का अर्थ है-"असार को छोड़कर सार को ग्रहण करना।" जब तक रामकृष्ण परमहंस जैसे गुरु की कृपा प्राप्त न हो तब तक असार संसार को छोड़कर सार संन्यास की ओर नरेंद्र की दृष्टि नहीं उठती। आज के युवाओं की तरह नरेंद्र भी विश्वविद्यालय का टॉपर होने के बावजूद नौकरी के लिए दर-दर की ठोकरें खा रहे थे। किंतु गुरु कृपा से जब मां काली प्रकट हुईं तो उन्होंने नौकरी नहीं मांगा बल्कि ज्ञान मांगा, अर्थात् सत्ता को छोड़कर सत्य मांग लिया।


हिंदू धर्म के उठते ज्वार के बीच राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा के उमंग के अवसर पर विवेकानंद की हिंदुत्व के प्रति दृष्टि को समझने से हममें विवेक जगेगा,जिससे पूरा जगत आनंद से भर जाएगा।


रामकृष्ण ने स्वयं अनेक रास्तों से उस परम सत्य की अनुभूति की, जिसे उन्होंने काली मां कहा। यही कारण था कि शिकागो के विश्व धर्म संसद में हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में गर्व से कहते हुए स्वामी विवेकानंद ने शिवमहिम्न स्तोत्र के एक श्लोक को उद्धृत किया, जिसका अर्थ था कि जिस प्रकार से सारी नदियां टेढ़े-मेढ़े रास्तों से चलकर समुद्र में गिरती हैं, उसी प्रकार से मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार टेढ़े-मेढ़े और अलग-अलग रास्तों से चलकर उसी एक परम सत्य को प्राप्त करता है-


'रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिल नानापथजुषां.


नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव ‌।'


अर्थात् उनकी नजर में हिंदू धर्म प्रतियोगिता का नहीं, प्रेम का धर्म है ; संघर्ष का नहीं,सार्वभौमिक स्वीकृति का धर्म है।विवेकानंद ने इसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि हमें एक सार्वभौमिक धर्म की शुरुआत करनी चाहिए जिसमें हिंदुओं का दया भाव, ईसाइयों की कर्मठता और इस्लाम का भाईचारा सम्मिलित हो।


मंदिर निर्माण के संबंध में भगिनी निवेदिता ने स्वामी जी की एक निजी अनुभूति का उल्लेख किया है जो विचारणीय है। किसी जगह विध्वस्त भवानी मंदिर को देखकर स्वामी जी फूट-फूट कर रोए और उसके निर्माण की प्रतिज्ञा ली कि मंदिर को मैं बनाकर ही रहूंगा। उसी रात सपने में मां प्रकट हुईं और उन्होंने नरेंद्र को कहा कि 'तेरा इतना अहंकार बढ़ गया कि जगत को निर्माण करने वाली मां के मंदिर का निर्माण तू करेगा।' विवेकानंद का अहंकार तुरंत विलीन हो गया और उन्होंने मां से क्षमा मांग ली।


राम से बड़ा प्रेम और सार्वभौमिक स्वीकृति का नायक ढूंढना मुश्किल है। रामकृष्ण परमहंस ने उस प्रेम को और सार्वभौमिक स्वीकृति को आधुनिक समय में जीवन में उतारा‌ और उसको अपने शिष्य नरेंद्र में संचारित कर दिया। नरेंद्र ने भी अपने गुरुऋण को चुकाने के लिए अपनी मुक्ति की कामना छोड़कर अनेक कष्टों और दुखों को सहते हुए समस्त मानवता की मुक्ति के लिए हिंदू धर्म के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय समाज को हिलाया और राष्ट्र की आत्मा को जगाया।


परमात्मा करे कि वह विवेक हम सबमें आए ताकि राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से जगत आनंद से पूर्ण हो जाए।


शिष्य-गुरु संवाद से प्रो.(डॉ.)सर्वजीत दुबे🙏🌹