🙏७५वें गणतंत्र दिवस की शुभकामना🙏
'संविधानज्योति भी रामज्योति की तरह जले'
रामज्योति के लिए भावनाओं का ज्वार जितना बड़ा उठा, संविधानज्योति को जलाने के लिए क्यूं नहीं उठता? सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी ने गुरु परंपरा को खत्म करके गुरु ग्रंथ साहिब को गुरु का दर्जा प्रदान किया। गुरु ग्रंथ साहिब के साथ सिखों की भावनाएं पूरी तरह से जुड़ गई और उसकी बेअदबी को वे बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसी प्रकार से कुरान,बाइबल और कोई भी धर्म ग्रंथ हो अनुयायी उसके प्रति भावनात्मक लगाव रखते हैं। किंतु संविधान के प्रति भारतीयों का भावनात्मक लगाव धर्मग्रंथों के प्रति जैसा है,वैसा नहीं दिखता।
धर्म से जुड़े पंडित,मौलवी,पादरी सभी अपने धर्मग्रंथो को जनमानस तक पहुंचाने के लिए परंपरागत रूप से बहुत अच्छा प्रयास करते हैं। क्या ऐसा प्रयास संविधान को जनमानस तक पहुंचाने के लिए किया जाता है?यदि नहीं तो हमें गंभीरतापूर्वक विचार करना होगा कि संविधान के प्रति हमारी आस्था और भावना क्यूं नहीं जुड़ पाई?
कहीं ऐसा तो नहीं कि संविधान हमारी जड़ों से जुड़ा हुआ नहीं है। विश्व के लगभग 60 देशों के संविधानों का अध्ययन करके और उनसे सारभूत बातें लेकर जो संविधान हमारे संविधाननिर्माताओं ने बनाया, उनको अधिनियमित तो हमने कर लिया किंतु अंगीकृत और आत्मार्पित स्वयं को नहीं कर पाए।
धर्म के बढ़ते हुए उन्माद और प्रभाव को देखकर आज सबसे बड़ा प्रश्न यह उठाया जा रहा है कि संविधानतंत्र की जगह कहीं हम धर्मतंत्र की ओर तो नहीं बढ़ रहे हैं?
भारत में बहुत विविधता है। विविधता में एकता की स्थापना के लिए धर्मनिरपेक्ष शब्द को लाया गया, ताकि हम धर्मतंत्र से दूर हो सकें। यह माना गया कि धर्म व्यक्ति की निजी आस्था का विषय है और भारत का नागरिक होने के नाते हम सभी की सामूहिक आस्था संविधान के प्रति होनी चाहिए। लेकिन व्यवहार में धर्मतंत्र का शिकंजा कसता जा रहा है। एक तरफ शरिया कानून की बात तो दूसरी तरफ हिंदू राष्ट्र की बात यही संकेत कर रहे हैं कि धर्म की जड़ें बहुत गहरी हैं।
पश्चिम के देशों में धर्मसत्ता और राज्यसत्ता को अलग किया गया क्योंकि वहां पर धर्म को 'रिलीजन' माना गया है जिसका अर्थ होता है 'बंधन' अर्थात् कुछ धार्मिक नियमों से बंध जाना। भारतीय संस्कृति में धर्म बांधता नहीं है, बल्कि व्यक्ति को साधता है। इसी कारण गांधी जी का कथन है कि धर्म के बिना राजनीति विधवा के समान है और वे रामराज की बात करते थे। क्योंकि राम राजा होने के बावजूद अपनी प्रजा से अपनी संतान जैसा प्रेम करते थे। आखिर संविधान की नजरों में भी हम सभी समान हैं।
आज धर्म के नाम पर जो भावनाओं का ज्वार उठ रहा है वह बताता है कि धर्म भारत का प्राण है और अपने प्राण से निरपेक्ष या तटस्थ कोई कैसे हो सकता है?
हमारे संविधान के मौलिक कर्तव्यों में वैज्ञानिक सोच विकसित करने की बात कही गई है, धार्मिक सोच नहीं। लेकिन आज हकीकत में वैज्ञानिक सोच से ज्यादा धार्मिक सोच से लोग अनुप्राणित हो रहे हैं। 'धर्मो रक्षति रक्षित:'का मंत्र आज जनमानस में ज्यादा लोकप्रिय हो रहा है। इस कारण से 'संविधान खतरे में है' ऐसे प्रश्न भी उठाए जा रहे हैं।
आज सोचने का दिवस है कि 'सेकुलर' शब्द को धर्मनिरपेक्षता नहीं बल्कि पंथनिरपेक्षता के रूप में जनमानस तक कैसे पहुंचाया जाए?धर्म और राजनीति के घालमेल को कैसे रोका जाए? धार्मिक उन्मादग्रस्त लोगों में वैज्ञानिक सोच कैसे विकसित किया जाए?
गणतंत्र दिवस की हीरक जयंती(75th) की सार्थकता इसी में है कि शिक्षा जगत संविधान को गण और तंत्र दोनों के लिए सरल और सरस बनाने की दिशा में विशेष प्रयास करे। संविधान पार्क की स्थापना एक अच्छा कदम है किंतु संविधान हर हृदय में स्थापित हो इसके लिए विशेष कदम उठाने होंगे। वाल्मीकि द्वारा देववाणी संस्कृत में लिखे गए रामायण को तुलसीदास जी ने जनवाणी अवधी में 'रामचरितमानस' के रूप में लिखकर राम को जन-जन तक पहुंचा दिया ; क्या ऐसा प्रयास संविधान को जन-जन तक पहुंचाने के लिए हम कर सकते हैं?
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे 🙏🌹