"लव,लिव-इन और प्रेम"


पश्चिमी संस्कृति का 'लव'(love) और पूर्वी संस्कृति का 'प्रेम' इन दोनों शब्दों में बहुत बड़ा अंतर है। वैलेंटाइन डे और ऋतुराज बसंत के मौसम में इस अंतर को गहराई से समझने की जरूरत है।


            Love एक संबंध है।संस्कृत में लभ् धातु है जिसका अर्थ है पाना।यही  पाने की बात लव में है। लेकिन प्रेम संबंध नहीं , हृदय की एक ऐसी स्थिति है जहां देने का भाव रहता है, पाने का नहीं।


                'आई लव यू' (I love you)वाक्य में आई और यू के बीच में love है। लेकिन कबीर का अनुभव है कि


'प्रेम गली अति सांकरी तामे दोउ न समाय


राजा प्रजा जेहि रुचे शीश देइ लेइ जाए।'


             तथाकथित love से शुरु हुए 'लिव इन रिलेशन' (live in relation)का अंजाम हम देख रहे हैं। आई और यू एक दूसरे को कई टुकड़ों में काटकर ठिकाने लगा रहे हैं। जबकि प्रेम में प्रेमी पास भी न हो तो प्रेमपूर्ण हृदय आनंद से भरा रहता है और अपने प्रेमी के लिए दुआएं करता है।


         Love में एक स्वामित्व (possession) का भाव होता है- 'तू हां कर या ना कर , तू है मेरी किरण...‌। प्रेम में समर्पण का भाव होता है-


'हर खुशी हो वहां,तू जहां भी रहे


जिंदगी हो वहां,तू जहां भी रहे।'


            स्वामित्व और समर्पण के बीच में संबंध झूलता रहता है। किशोरावस्था में आए हार्मोनल चेंज से एक दूसरे के प्रति जन्मा हुआ आकर्षण देह के करीब ही रहता है तो लव (love),  और आत्मा के करीब पहुंच जाता है तो प्रेम।


                 देह में आसक्त लव (love) बोलता है कि-


'तू अगर मुझको ना चाहे तो कोई बात नहीं


तू किसी और को चाहेगी तो मुश्किल होगी।'


                 लेकिन आत्मा की ऊंचाइयों पर जाता हुआ प्रेम कुछ और बोलता है-


'तुम भूल भी जाओ तो यह हक है तुमको


मेरी तो बात ही कुछ और है, मैंने तो मोहब्बत की है।'


                  लव (love) में व्यक्ति को वस्तु समझने की प्रवृत्ति होती है जिसके कारण ईर्ष्या-द्वेष,अपेक्षा-कलह के कारण समय बीतने के साथ संबंध कमजोर होते चले जाते हैं और घृणा में परिवर्तित हो जाते हैं। प्रेम में खुद का अस्तित्व गौण हो जाता है और प्रेमी बड़ा दिखने लगता है और खुदा बन जाता है-


'तुझमें मुझे रब दिखता मैं क्या करूं


सजदे में है सर झुकता मैं क्या करूं?'


                 पश्चिमी संस्कृति का 'लव'(love) व्यक्ति से शुरू होता है और व्यक्ति पर ही खत्म हो जाता है। पूर्वी संस्कृति का 'प्रेम' पेड़-पौधों से शुरू होकर पशु-पंछियों से गुजरता हुआ व्यक्ति तक पहुंचता है और व्यष्टि से समष्टिरूपी मंजिल को प्राप्त कर लेता है।


            कामवासना के कीचड़ में धंसा हुआ लव (love) कारागृह बन जाता है जबकि उपासना की ओर बढ़ता हुआ प्रेम प्रार्थना बनकर परमात्मा तक पहुंचकर मुक्ति लाता है‌। ऋषि कहते हैं-


'बंधनानि खलु संति बहूनि, प्रेमरज्जु दृढ़बंधनम् अन्यत्


दारुभेद निपुणो अपि षडंध्रि, निष्क्रियो भवति पंकजकोषे'


अर्थात् बंधन कई प्रकार के होते हैं किंतु प्रेम-बंधन अनूठा है।काठ को काटदेने वाला भंवरा फूल की कोमल पंखुड़ियों में प्रेम के कारण रात भर बंधन में रहता है।


           पश्चिमी संस्कृति में लव (love)काम प्रधान होने से दानव का रूप ले लिया। पूर्वी संस्कृत में प्रेम काम को भी देव बना देता है- 'कामदेव'  ; तभी राम का जन्म होता है।


            अंग्रेजी का 'I fall into love' वाक्य इस बात का प्रमाण है कि लव में व्यक्ति गिरता है जबकि भारतीय संस्कृति का प्रेम व्यक्ति को ऊंचा उठाता है-


'जब तलक दिल में मोहब्बत ना हुई थी पैदा


ये ज़मीं सादा थी , जन्नत ना हुई थी पैदा


जिंदगी में कोई लज्जत ना हुई थी पैदा


जेहन और फिक्र में अजमत न हुई थी पैदा।'


                        इसलिए गुलजार साहब का यह गीत मुझे बेहद पसंद है क्योंकि भारतीय संस्कृति के प्रेम को रिश्तो-संबंधों के दायरे से ऊपर उठकर एक ऐसा एहसास बताती हैं जो रूह से ही महसूस किया जा सकता है-


'हमने देखी है इन आंखों की महकती खुशबू


हाथ से छू के इसे किसी रिश्ते का इल्जाम ना दो


सिर्फ एहसास है यह रूह से महसूस करो


प्यार को प्यार ही रहने दो इसे कोई नाम ना दो...


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹