संवाद
"बेरोजगारी,बसंत और वैलेंटाइन"
एक तरफ प्रकृति अपने पूरे शबाब पर है और दूसरी तरफ प्रेम का कोई मसीहाई आकर्षण "वैलेंटाइन" अपनी पुकार पर है। इसमें बेरोजगारी चरम पर है। स्थिति ऐसी हो गई है कि दिल एक कदम आगे बढ़ाता है और दिमाग तत्क्षण ही उस बढ़े हुए कदम को खींचने लगता है।
कहीं हृदय बेकाबू हो जाए तो संस्कृति के चौकीदार का खतरा मौजूद रहता है। फिर भी-
"न हारा है इश्क और न दुनिया थकी है
दीया जल रहा है , हवा चल रही है..."
इस दौर की युवावस्था की बेचैनियां अजीब हैं। राधा-कृष्ण का यह देश प्रेम करने नहीं देता और बसंत का मौसम दिल को काबू में रहने नहीं देता। वैलेंटाइन की आत्मा प्रेम को मरने नहीं देती और रोजी-रोटी की दिक्कत जीने नहीं देती-
"दिल की दुनिया बसाने के पहले मेरी जान मुझको बहुत सोचना है
तुझे अपना साथी बनाने से पहले मेरी जान मुझको बहुत सोचना है"
किंतु कितना भी मस्तिष्क सोचने में लगा रहे, हृदय के सामने उसकी एक नहीं चलती। मनोहारिणी प्रकृति मन का हरण कर लेती है। प्रेम उसे अपने आगोश में ले लेता है। और जब प्रेम की दुनिया बसाने की बात आती है तो बेरोजगारी के कारण सुनहरा सपना धूलधूसरित होने लगता है। जब तक होश आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है-
ये कहां आ गए हम , तेरे साथ चलते चलते.....
युवाओं का यह देश और प्रेम के महात्मय का बखान करने वाला यह समाज क्या कभी युवाओं के दर्द और द्वंद्व को महसूस कर पाएगा?
"इंसाफ! ऐ बुतों की चाह देने वाले
हुस्न उनको,मुझे निगाह देने वाले"
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ.सर्वजीत दुबे🙏🌹