🙏महिला दिवस और 'शिष्य-गुरु संवाद'🙏
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"भयाक्रांत-परिवेश में निर्भया- स्क्वायड"
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को प्रति वर्ष 1975 से मनाया जाता रहा है। फिर भी महिलाओं के प्रति अपराध प्रतिवर्ष बढ़ता जा रहा है।
अभी कुछ दिन पहले देश की आर्थिक राजधानी और ग्लैमर की दुनिया मुंबई के साकीनाका में दिल्ली के निर्भया कांड की तरह एक रेप की घटना हुई। बलात्कार की प्रकृति सेक्स और हिंसा की अमानवीय प्रवृत्ति की ओर इशारा कर रही है, जिसकी जड़ों तक जाने की जरूरत है।
मुंबई सरकार ने निर्भया एस्क्वायड बनाकर "सदा रक्षणाय,खल विग्रहणाय" का नारा सदी के महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज में बुलंद किया ताकि निर्भया बिना डर के बाहर निकलें।किंतु परिवार और समाज के सहयोग के बिना इस अभियान की सफलता मुश्किल है ।
चेन्नई की 11 वर्षीया एक बालिका ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था- "लड़कियों के लिए एकमात्र सुरक्षित स्थान सिर्फ मां की कोख और कब्रिस्तान है।"
लेकिन इस बालिका को यह बात पता नहीं थी कि एम्नियोसेंटेसिस टेक्नीक आने के बाद लिंग-परीक्षण कराकर करोड़ों बच्चियों को कोख में भी रहने नहीं दिया गया और कब्र से निकालकर भी महिलाओं के साथ बलात्कार किए गए हैं, और वह भी विश्व प्रसिद्ध अभिनेत्री मर्लिन मुनरो जैसी हस्ती के साथ।
परंपरागत सोच स्त्रियों को अपनी संपत्ति मानने की और उसे दोयम दर्जे की स्वीकार करने की रही है। एक तरफ "महानायक" कह रहे हैं-
"हर कठिन परिस्थिति का सामना कर वो अपनी प्रबलता दिखाती है,
इसीलिए तो नारी शक्ति कहलाती है।
अब वक्त है ऊंची उड़ान भरने का ,
भय को पराजित करने का,
विजयी बनने का।
तोड़ के डर की दीवारें ,
चल बनाएं जग नया;
लांघ के वो लक्ष्मण रेखा ,
बन निडर, बन निर्भया।"
किंतु डर फिल्म का एक गाना बहुत प्रसिद्ध हुआ- "तू हां कर या ना कर ; तू है मेरी किरण.…' -लड़कियों के प्रति इस मानसिकता का निर्माण एक दिन में नहीं हुआ है। स्त्री को सिर्फ शरीर मानने का और वस्तु मानने का विचार सदियों से अनेक संस्कृतियों में चला आ रहा है। अन्यथा अग्नि-परीक्षा सिर्फ सीता की नहीं होती ,राम की भी होती। किसी के कहने पर गर्भवती सीता को वन में छोड़ देना, यह कुल मर्यादा के रक्षा की बात थी। धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा द्रौपदी को जुए में दांव पर लगा देना स्त्री के प्रति वस्तुवादी दृष्टिकोण का उदाहरण है। चीन में तो अपनी पत्नी की हत्या कर देने पर भी हाल तक कोई सजा तक का प्रावधान नहीं था क्योंकि वहां स्त्री में आत्मा नहीं मानी जाती थी।
पुरुष प्रधान समाज में इससे भी बड़े दुर्भाग्य की बात यह रही कि स्त्रियों ने भी बेटा होने पर खुशी मनाना और बेटी होने पर उदास होना शुरू कर दिया। अन्यथा बेटा या बेटियों के लालन-पालन में कोई मां भला कैसे भेद कर सकती है? यह पुरुषवादी मनोवृति स्त्रियों के भी अचेतन-मन में बस गई है।
महत्वपूर्ण सवाल मन के परिवर्तन का है।
"निर्भया स्क्वायड "थोड़ी-बहुत सुरक्षा का एहसास करा सकती है किंतु मन को बदलने का काम तो शिक्षा ही कर सकती है।
पुरुष का मन हो या स्त्री का मन हो; यह बात गौण है।
हर मन को इस सत्य का पता होना चाहिए कि परमात्मा ने सृष्टि-प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए गर्भधारण की शक्ति स्त्री को ही दी है। चाहे शिवाजी हो या लक्ष्मीबाई दोनों को स्त्री के गर्भ से ही धरती पर जन्म मिलेगा।
तब एक वैज्ञानिक बात समझ लेने की है कि दीन-हीन स्त्री से गौरवपूर्ण-संतति कैसे पैदा हो सकती हैं?
अतः महिला सशक्तिकरण का सवाल मानवता के सशक्तिकरण का सवाल है। कौशल्या न हो तो राम का जन्म नहीं हो सकता और सुनयना न हो तो सीता का भी जन्म नहीं हो सकता।
यदि आज अपराध और विकृतियां बढ़ रही हैं तो उसके मूल में बहुत बड़ा कारण परिवार द्वारा शिक्षा-दीक्षा और परवरिश पर ध्यान नहीं देना है।
स्त्रियों को जब शिक्षा से दूर किया गया तो पर्दा प्रथा, दहेज प्रथा, सती प्रथा, कन्या शिशु हत्या जैसी अनेक विकृतियां समाज में आ गईं।
स्त्री और पुरुष दो नहीं है क्योंकि दोनों में माता पिता के अंश विद्यमान रहते हैं। सिर्फ डिग्री का कुछ अंतर होता है।
दोनों में भिन्नता अवश्य है, भेद कदापि नहीं। दोनों एक दूसरे के परिपूरक हैं।
सिर्फ पुरुषों की दुनिया हो या सिर्फ स्त्रियों की दुनिया हो ; बहुत बदसूरत दुनिया होगी। स्त्री पुरुष के परस्पर प्रेम और आदर से निर्मित दुनिया ही खूबसूरत हो सकती है।
इसीलिए पुरुषों के अत्याचार से पीड़ित होकर जब नारियों ने नारी मुक्ति आंदोलन चलाया तो वह असफल हो गया। क्योंकि पुरुष से मुक्त होना संभव नहीं था। वह पुरुष सिर्फ पति के रूप में ही नहीं था बल्कि बेटा,भाई,बाप इत्यादि अनेक रूपों में था।
इसी तरह "नारी समानता आंदोलन" भी सफल नहीं हो सका। क्योंकि स्त्रियां पुरुषों से प्रतियोगिता में उतर गईं और पुरुषों के रहन-सहन अपनाने लगीं।न पुरुष को स्त्री बनने की जरूरत है और न स्त्री को पुरुष।
इसके बाद "नारी सशक्तिकरण आंदोलन" अस्तित्व में आया और सफल हुआ। शिक्षा के अवसर खुलते ही अपनी प्रतिभा के बल पर बड़े-बड़े पदों पर स्त्रियां शोभायमान हुईं।किंतु इंदिरा गांधी, किरण बेदी,कल्पना चावला जैसी कुछ स्त्रियों की सफलता को समस्त स्त्रियों की सफलता के रूप में नहीं देखा जा सकता।
इस नारी सशक्तिकरण आंदोलन का एक पक्ष यह भी है कि कुछ पुरुष इसे अपने विशेषाधिकारों की कटौती के रूप में देख रहे हैं। ऐसे में एक नए आंदोलन की जरूरत है - "संवेदनशील बनाओ आंदोलन।"
समाज में संवेदनशीलता को जगाने वाली शिक्षा की जरूरत है। खासकर पुरुष वर्ग में यह चेतना लाई जानी चाहिए कि जो स्त्री मां, बहन, पत्नी, बेटी,मित्र के रूप में जीवन को समृद्ध बनाती हैं, उस स्त्री को सशक्त और शिक्षित बनाए बिना एक अशक्त और अशिक्षित दुनिया में कैसा जीवन होगा?
अतः बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ ही नहीं बल्कि बेटी के लायक पवित्र और सुरक्षित दुनिया भी बनाओ। मां, चाची,बहन,भाभी,पत्नी इत्यादि अनेक रूपों में मेरे हृदय के कोने में बैठी एक स्त्री है,जिसकी आवाज कह रही हैं-
"शास्त्र कहते हैं तुझे वेद पढ़ने का अधिकार नहीं,
मैं कहती हूं मुझे वेदों की कोई दरकार नहीं।
जिस धर्म का वेद शब्दों में बखान करते हैं,
उस धर्म को हम जीकर जगत को बयान करते हैं।
बुद्ध बनने की हमें कोई ख्वाहिश नहीं हैं,
साधना की कहीं कोई नुमाइश नहीं है।
जिन दुखों से भागकर पुरुष बुद्ध कहलाते हैं
उनसे गहन दुखों में भी हम मुस्कुराते हैं।
किंतु मेरी रचना ही जब मुझे नकारने लगी,
जन्म लेने के पहले ही अस्वीकारने लगी,
तो मैं यह तेरे लिए संदेश लाई हूं,
सृष्टि प्रक्रिया बंद करने का विधाता से आदेश लाई हूं।
फिर मत तरसना कभी मां की लोरियों के लिए,
मत इंतजार करना रक्षाबंधन की डोरियों के लिए,
न तो प्रेमिका बनकर तेरे सूने जीवन में कोई बहार लाएगी,
और न बेटी बनकर कोई आंगन में खिलखिलाएगी,
तू फिर जीते जी मौत को तरसेगा;
मेरे हिस्से का प्रेम तुझ पर कभी न बरसेगा।।
परमात्मा न करे कि कभी ऐसा समय आए कि पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों के अत्याचार से स्त्री- तत्व ही विलुप्त हो जाए और सृष्टि- प्रक्रिया बंद हो जाए।
या परमात्मा एक नई सृष्टि ईजाद कर दे,
पुरुष को कोख दे दे,स्त्री को आजाद कर दे।।
'शिष्य-गुरु संवाद' से डॉ. सर्वजीत दुबे
महिला सशक्तिकरण दिवस की शुभकामना🙏🌹