संवाद
'उपभोक्तावादी जमाने में आत्मवादी दर्शन'
15 मार्च,'विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस' उपभोक्तावादी संस्कृति और दर्शन पर विचार करने का एक अवसर है। एक दृष्टि है जो वस्तुओं में सुख मानती है और उसे साध्य मानती है जबकि एक दूसरी दृष्टि है जो आत्मा में सुख मानती है और वस्तुओं को साधन और आत्मा को साध्य मानती है।
महंगे मोबाइल की जिद के कारण जब एक किशोर ने आत्महत्या कर ली तो मां-बाप यह समझने से चूक गए कि महंगे सामानों के पीछे हमेशा भागने वाली उनकी प्रवृत्ति ने ही इकलौते बच्चे को ऐसा बना दिया कि वह हमेशा वस्तुओं में ही सुख मानने लगा। जब कभी भी नया सामान आता तो वह परिवार सभी दोस्तों और रिश्तेदारों को दिखाकर इठलाता और अपने विशेष होने के एहसास को गहरा बनाता.....
'हर एक चीज मुहैया है शहर में अब किश्तों पर
अपनी हसरतों पर अब लगाम कौन रखता है?
बहलाकर छोड़ आते हैं,वृद्धाश्रम में मां-बाप को
अपने घरों में अब पुराना सामान कौन रखता है?
एक दर्शनशास्त्र की प्रोफेसर को 25 सालों से पुरानी बजाज स्कूटी पर कॉलेज आते-जाते देखा तो किसी ने पूछा कि आपके पास कार भी है और सेल्फ स्टार्ट सुंदर स्कूटियां भी आ चुकी हैं ; फिर भी आप अस्थि-पंजर हिल रहे इस पुराने स्कूटर से ही क्यों आना-जाना करती हैं? दार्शनिक-जवाब ने प्रश्नकर्ता को चौंका दिया। उन्होंने कहा कि सुख वस्तुओं में नहीं है,वस्तुओं से सिर्फ थोड़ी बहुत सुविधा मिल जाती है। सुख तो अंतरात्मा में है। वस्तुओं पर ज्यादा ध्यान देने से अंतरात्मा पर से ध्यान हट जाता है। Having (वस्तु) बढ़ जाता है, Being (आत्मा)घट जाता है।
'यह कौन सी धूप है इस महानगर में दोस्तों
हम तो छोटे हो गए, परछाइयां बढ़ती गईं
डालियों पर पंछियों का बैठना है अब मना
आशियां गिरते गए, अमराइयां बढ़ती गईं।'
आज जगत की मुख्य समस्या यही है कि हैविंग अर्थात् वस्तुओं के आधार पर सोशल स्टेटस निर्धारित किया जा रहा है। इसलिए बुद्धिजीवियों से भरे कॉलेज में भी लोग छोटी कार हटाकर बड़ी कार ले आते हैं और मेरे स्कूटर को जेसीबी कहकर मजाक उड़ाते हैं। साड़ी की जगह सूट पहन कर कॉलेज जाने में सुविधा होती है तो मैं सुविधा को देखती हूं,प्रदर्शन पर ध्यान नहीं देती।
दर्शनशास्त्र को पढ़ने के बाद मुझे यही पता चला कि धन,पद,प्रतिष्ठा सब परछाइयां हैं। उपभोक्तावादी दर्शन के कारण जब से लोगों ने परछाइयों के पीछे भागना शुरू किया तब से अहंकार बढ़ता गया और आत्मा गिरता गया-
'यया अभिमानो निवर्तते सा विद्या'अर्थात् जिससे अभिमान खत्म हो जाए वही विद्या। आज उस विद्या की सर्वाधिक जरूरत है।
वस्तुओं में सुख मानने वाली उपभोक्तावादी संस्कृति का मूलस्रोत चार्वाक दर्शन में है, जिसके कारण 'खाओ,पियो और मौज करो' की सोच समाज में विकसित हो गई। इसके कारण अब घर-घर में दुकानें खुल गई हैं और बाजार सामानों से पट गए हैं। इंसान की जगह पर लोग अब सामान से प्यार करने लगे हैं,फलत: परिवार टूटता जा रहा है और मनुष्य अकेला होता जा रहा है।
आत्मवादी दर्शन को मानने वाले लोग पेड़-पौधे और पशु-पंछियों से भी प्यार करते थे। निःस्वार्थ भाव से जन्मे इस प्यार के कारण इंसानों से संबंध बनाते समय उनकी अपेक्षा बहुत कम होती थी,जिसके कारण संबंधों में 'देने का भाव' ज्यादा रहता था। उपभोक्तावादी दर्शन का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव यह हुआ है कि 'लेने के भाव' से व्यक्ति भर गया है। 'यह दिल मांगे मोर' जब मूलमंत्र बन जाता है तो मानवीय संबंध लहूलूहान हो जाता है।
जब कबीर ने कहा-'पानी बीच मीन पियासी,मोहि देखी देखी आवत हांसी' तब उसका अर्थ समझना मुश्किल पड़ा होगा,लेकिन उपभोक्तावादी संस्कृति में
'हर जगह,हर तरफ बेशुमार आदमी
फिर भी तन्हाइयों का शिकार आदमी'
देख कर कोई भी इसका अर्थ समझ सकता है।
मानव जीवन में प्रमुख आत्मा है और आत्मा तृप्त होती है प्रेम से जो हृदय की एक विशेष भाव दशा का नाम है। इसे वस्तुओं पर निर्भर संबंध दशा बनाने से व्यक्ति 'पानी बीच मीन पियासी' बना ही रहेगा।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹