🙏International happiness day🙏


"ऐ खुशी!तू कहां छुपी?"


अंतरराष्ट्रीय खुशी दिवस इस भौतिक संसार में कुछ  अभौतिक की ओर इशारा कर रहा है। विज्ञान इस नतीजे पर अब पहुंचने लगा है कि धन से खुशी का कोई सीधा संबंध नहीं है। धर्म इस नतीजे पर सदियों पहले पहुंच गया था कि खुशी कुछ विशेष आंतरिक अनुभव है,जिसे कभी गौतम महल छोड़कर जंगल में जाकर बुद्ध बनकर पाते हैं और कभी राजा जनक महल में रहते हुए भी पा लेते हैं। महान वैज्ञानिक आइंस्टीन ने जब मरते वक्त यह कहा कि अगले जन्म में मैं एक वैज्ञानिक की अपेक्षा प्लंबर बनना पसंद करूंगा, तो यह इशारा मिलता है कि खुशी वैज्ञानिक जैसे बड़े पद में नसीब नहीं हुई। फ्रांस मूल के 78 वर्षीय मैथ्यू रिकार्ड को आज दुनिया का सबसे खुश इंसान माना जाता है जो पहले मॉलिक्यूलर साइंटिस्ट थे, उसे छोड़कर बौद्धभिक्षु बन गए और नेपाल जैसे गरीब देश में मठ में रह रहे हैं।


              जब झोपड़ी में भी किसी गरीब को खुश देखा जाता है और जब अमीरों को भी अवसाद में पड़ते हुए और आत्महत्या करते हुए  देखा जाता है तो खुशी पर शोध करने को व्यक्ति मजबूर हो जाता है कि आखिर खुशी किसे कहें?


               जब धन,पद,प्रतिष्ठा के पीछे कोई दौड़ता है तो उसे लगता है कि खुशी इनमें छिपी हुई होगी , अन्यथा व्यक्ति उसे पाने के पीछे इतना पागल क्यों होता?


            लेकिन सब कुछ पाने के बावजूद भी व्यक्ति यदि खुश नहीं रह पाता तो उसका भ्रम टूटता है कि खुशी कुछ और ही विशेष तत्त्व है और हर व्यक्ति की खुशी का पैमाना अलग-अलग है। जैसे सौंदर्य अंगों से अलग कोई विशेष तत्त्व होता है उसी प्रकार से खुशी धन-पद-प्रतिष्ठा से अलग कुछ विशेष तत्त्व हैं।


              अंतर्राष्ट्रीय खुशी दिवस  जीवन को मापने का  एक अलग पैमाना देता है क्योंकि पाया गया कि भौतिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के बाद भी आध्यात्मिक और नैतिक लक्ष्यों के बिना जीवन में बहुत बड़ी कमी रह जाती हैं। तभी तो विश्व के सबसे अधिक खुश देशों में सबसे अधिक अमीर माने जाने वाले देश इंडेक्स में पीछे आ रहे हैं जबकि फिनलैंड,आइसलैंड और हॉलैंड जैसे देश आगे आ रहे हैं। भूटान जैसे छोटे देश में ग्रॉस डॉमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) की जगह ग्रॉस हैप्पीनेस प्रोडक्ट को अपनाया गया जिसके अंतर्गत कम से कम संसाधनों में अधिक से अधिक खुश रहने की कला विकसित की जा रही है।


             इस संदर्भ में भारतीय संस्कृति की दृष्टि बहुत गहरी और प्रामाणिक है जो यह बताती है कि पशु-पंछियों से लेकर पेड़-पौधों तक में मानव जैसी संवेदनाएं और भावनाएं हैं, अतः समग्र से जुड़े बिना विश्व खुशी को प्राप्त नहीं कर सकता। कबीर के शब्दों में पहले उसे स्वयं में ढूंढना है -'कस्तूरी कुंडली बसै,मृग ढूंढै बन माहि...'


फिर उसे समग्र में बांटना है.... अंतरि भीगी आतमा,हरी भई बनराई..... तभी अंतर्राष्ट्रीय खुशी दिवस सार्थक हो सकता है।


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹