🙏होली की शुभकामना🙏
'बेरोजगार प्रहलाद की होली'
होली असत्य पर सत्य की जीत का एक उत्सव है। हिरण्यकश्प और होलिका रूपी असत्य कितना भी ताकतवर हो किंतु उसे हारना ही पड़ता है। प्रहलाद रूपी सत्य कितना भी कोमल हो, वह जीत ही जाता है। प्रहलाद की जीत का मूल कारण है कि अहंकाररूपी हिरण्यकश्यप और होलिका से संबंध न बनाकर उसने अपनी आत्मा का संबंध परमात्मा से बनाया। प्रहलाद का जन्म कीचड़ में हुआ किंतु उसका विकास कमल के रूप में हुआ।
भारतीय संस्कृति के पुराणों में जो कथाएं आई हैं, वे प्रतीकात्मक हैं। उन प्रतीकों को समझने में और समझाने में रहस्यदर्शी ही सफल होते हैं। रहस्यदर्शी ओशो ने होली के प्रतीक को खोलते हुए बताया कि शुभ-विचार हमारे हृदय में परमशक्ति से जुड़ने पर अंकुरित होता है। हिरण्यकश्यप के घर में जन्म लेने के बावजूद धन-पद-प्रतिष्ठा के अहंकार में प्रहलाद नहीं पड़ा। परमात्मा के प्रति उसकी भक्ति से चिढ़कर हिरण्यकश्यप ने उसे कई उपायों से मिटाना चाहा। एक-एक उपाय असफल होते गए। अंत में उसने अपनी बहन होलिका की गोद में बिठाकर प्रहलाद को आग में जलाने का विचार किया। आश्चर्य की बात कि होलिका जल गई,प्रहलाद बच गया। यह एक संकेत है कि कचरा जल जाता है और सोना बच जाता है। सोने की कई प्रकार से परीक्षा की जाती है- घिसकर,पीटकर,जलाकर। उन सारी परीक्षाओं से प्रहलाद गुजरा और निखरता चला गया।
दूसरी तरफ हिरण्यकश्यप का अहंकार बढ़ता गया क्योंकि उसे विष्णु ने वरदान दिया था कि वह तो न दिन में मारा जाएगा न रात में, न धरती पर न आकाश में, न अस्त्र से न शस्त्र से,न पशु से मारा जाएगा न मानव से। वरदान देने वाले विष्णु ने ही नरसिंह अवतार लेकर उसे घर की ड्योढ़ी पर शाम के समय अपने नख से जांघ पर बिठाकर मार डाला। संदेश यह है कि असत्य सुरक्षा का अपना कितना भी उपाय कर ले, वह सुरक्षित नहीं हो पाता है।
असत्य पर सत्य की इस जीत को हमारी संस्कृति ने रंगों के त्यौहार के रूप में मनाया।
आज का प्रहलाद बेरोजगार होकर उपेक्षित,तिरस्कृत और बहिष्कृत बेरंग जीवन जी रहा है। हिरण्यकश्यप-होलिका पेपर लीक कराकर उसके सपनों को धूलधूसरित किए दे रहे हैं। न जमीन पर न आकाश में, न दिन में न रात में,न इस सरकार में न उस सरकार में कहीं भी पेपर सुरक्षित नहीं है। एक तो सर्वत्र पढ़ाई का हाल बेहाल है, दूसरी तरफ परीक्षा का अद्भुत मायाजाल है ; उस पर से युवाओं के रंगबिरंगे सपनों की होलिका जलाकर प्रहलादों के बेरंग जीवन में आया यह रंगों का त्योहार है....... हे विष्णु!तुम कहां हो?
'कितने हैं मेहरबान यहां के बहेलिए
कहते हैं परिंदों से उड़ो काट के पर को
जीवन में कोई रंग नहीं और होली है
चुपचाप कोई रोया है रात पिछले पहर को।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो सर्वजीत दुबे🙏🌹