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'राजनीति के भोज में नैतिकता का नमक'
गुड फ्राइडे, जो इस याद में मनाया जाता है कि मूल्य और नैतिकता की बात करने वाले ईसा मसीह को राजनीति ने आज सूली दी थी।राजनीति और नैतिकता के बीच सदा से 36 का आंकड़ा रहा है,फिर भी अपवादस्वरूप कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मूल्यों की राजनीति की स्थापना कर जाते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार एक वोट से गिर गई।
राजनीति में नैतिकता के सवाल पर संसद में उन्होंने कहा था 'मैं 40 साल से इस सदन का सदस्य हूं, सदस्यों ने मेरा व्यवहार देखा, मेरा आचरण देखा, लेकिन पार्टी तोड़कर सत्ता के लिए नया गठबंधन करके अगर सत्ता हाथ में आती है तो मैं ऐसी सत्ता को चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करूंगा।'
तब से एक प्रश्न सबके मन में गूंजता रहता है कि क्या यह अटल जी का बुद्धिमानी भरा कदम था? दरअसल भूल यही हो जाती है कि जब हम नैतिकता को बुद्धि के दृष्टिकोण से और हानि-लाभ के दृष्टिकोण से देखने लगते हैं। बुद्धि के लिए सत्ता या लाभ-हानि महत्वपूर्ण होती है जबकि आत्मा के लिए मूल्य। दुर्भाग्य से आज स्थिति यह हो गई है कि-
'अक्ल बारीक हुई जाती है
रूह तारीक हुई जाती है।'
नेताजी सुभाषचंद्र बोस ने जब आईसीएस छोड़ी थी और भारत माता को बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए कांटों भरे रास्ते पर कदम रखा था,तब यह उनकी आत्मा की आवाज थी।
भारतीय संस्कृति की मूल खोज यह है कि आत्मवान व्यक्तित्व के साथ नैतिकता उसकी परछाईं की तरह सदा पीछे से साथ चली आती है। आत्मा के बदलते ही आचरण बदल जाता है। आत्मा जड़ है और आचरण फूल। जड़ को सींचने की जरूरत है।आचरण के बदलने से आत्मा नहीं बदलती। नैतिकता सिर्फ आचरण पर जोर देती है। अतः जोर नैतिकता पर नहीं,आत्मा पर होना चाहिए।पश्चिम की संस्कृति नैतिक शिक्षा पर जोर देती हैं जबकि भारतीय संस्कृति आत्मज्ञान पर।
सभ्यता के विकास के साथ नैतिक शिक्षा जितनी बढ़ती गई,उतना ही ज्यादा पाखंड और पागलपन भी बढ़ता गया। नैतिकता का व्यापार आज चरम पर है क्योंकि अच्छा होने से कोई मतलब नहीं है सिर्फ अच्छा दिखने से मतलब रह गया है। चरम प्रचार और चरम प्रदर्शन वाली आज की राजनीति में सेवा के नाम पर दो ही खेल चल रहे हैं -अपनी छवि बनाना और दूसरों की छवि बिगाड़ना।
अतः कट्टर ईमानदार की छवि को बिगाड़ने के लिए जितना बड़ा प्रयास चल रहा है,वह अभूतपूर्व है। कीचड़ में सने हुए लोग यह कल्पना भी नहीं कर सकते हैं कि किसी का दामन पाक-साफ कैसे रह सकता है? लेकिन कट्टर ईमानदार की छवि बनाने वालों ने भी दूसरों पर इतने कीचड़ उछाले कि भारतीय राजनीति से वितृष्णा हो गई। कीचड़ उछालना जितना आसान था, राजनीति के कीचड़ में उतरकर अपने आप को पाक साफ रखना उतना ही मुश्किल पड़ रहा है।
कीचड़ उछालने वाली इस राजनीति के खेल में हमारा लोकतंत्र लहूलुहान हुआ जा रहा है। भ्रष्टाचार का आरोप लगाने वाली पार्टी ही जब भ्रष्टाचारियों को अपने में मिलाने के बाद पाक साफ बताने लगे तो फिर कौन विश्वास करेगा? जनता को तो यही संदेश जा रहा है कि स्वच्छ छवि वाला नेता दुर्लभ है या सारे आरोप राजनीति से प्रेरित होते हैं। ऐसी स्थिति में संविधान और लोकतंत्र दोनों खतरे में दिखाई देते हैं।
भारतीय संविधान की आत्मा लोकतांत्रिक मूल्यों में निहित है। लोकतांत्रिक मूल्य यही है कि हर व्यक्ति का जीवन मानवीय गरिमा और आदर्श से पूर्ण हो।
अब समय आ गया है कि लोकतांत्रिक मूल्यों से पूर्ण मानव निर्माण करने वाली शिक्षा पर देश और समाज सर्वाधिक ध्यान दे। राजनीति आज सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी हो गई है किंतु जीवन पर बहुत भारी पड़ने लगी है क्योंकि उस शिक्षा का निर्माण नहीं हो सका जो ऐसे व्यक्तियों को बना सके जिसे सत्ता या राजनीति भी भ्रष्ट नहीं करती।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो सर्वजीत दुबे🙏🌹