🙏रामनवमी की शुभकामना🙏


"राम लोकतांत्रिक चेतना के प्रतीक हैं"


शासन के कल्याणकारी गुणों के कारण और शासित के प्रति अपने हृदय में करुणा के कारण राजतंत्र के राम लोकतंत्र मे भी आदर्श बने हुए हैं।राम की लोकतांत्रिक चेतना इतनी प्रबल थी कि वे अपनी प्रजा को बिना भय के किसी गलत काम पर स्वयं को टोकने ही नहीं रोकने के लिए भी आमंत्रित करते थे-


'जौ अनीति कछु भाखहुं भाई,


मुझको बरिजहुं भय बिसराई'.


             जो राम सत्य,प्रेम,अहिंसा के रास्ते पर चलते हुए अपने हर वचन का निर्वाह करते थे , वे राम सनातन संस्कृति के मूलाधार हैं।


         भारतीय संविधान में  भाग 3, अनुच्छेद 12 से 35:जिसमें मौलिक अधिकार दिया गया है,उस पृष्ठ पर राम का चित्र सीता और लक्ष्मण सहित हैं,जिसका मूल संदेश यह है कि कर्तव्य का सदैव पालन करने वाले व्यक्तित्व ही अधिकार के योग्य होते हैं।


           राम ने राजनीति को भी धर्म बना दिया अर्थात् सेवा का माध्यम बनाकर राजनीति को उस ऊंचाई पर पहुंचा दिया कि रामराज्य लाने की कल्पना लोकतंत्र के पुरोधा महात्मा गांधी करते हैं। किंतु रामत्वविहीन कुछ लोगों ने धर्म को भी राजनीति का साधन बना दिया अर्थात् धर्म के नाम पर सत्ता पाने हेतु मंदिर-मस्जिद जाना एक रिवाज बना दिया। धर्म के राजनीतिकरण से आहत किसी कवि की आह कहती है-


'मंदिर भी साफ़ हमने किए,मस्जिदें भी पाक


मुश्किल ये है कि दिल की सफ़ाई न हो सकी।'


           सबसे ज्वलंत सवाल भारत के सामने राष्ट्र-धर्म का है। बेरोजगारी,महंगाई,जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या विस्फोट इत्यादि का सवाल सत्ता और मीडिया के द्वारा बहुत चतुराई से गौण बना दिया गया है। यथार्थ का सवाल यदि प्रमुखता से उठाया जाए तो सरकार का आकलन होने लगता है कि कितने बेरोजगार हैं, कितनी महंगाई है। यदि सवाल धार्मिक या भावनात्मक हो तो बिना कुछ विशेष प्रयास के वोट बैंक की साधना सफल हो जाती है।


          भारत एक धर्मप्राण देश है किंतु यदि राज्य के किसी एक धर्म (पंथ) को राष्ट्र-धर्म मान लिया जाए तो दूसरे धर्म के मानने वाले सवाल खड़े कर देंगे।


     "भारत हिंदूराष्ट्र था, है और रहेगा" -की बात आध्यात्मिक रूप से सत्य है किंतु राजनीतिक रूप से असत्य। बहुसंख्या के आधार पर राजनीतिक रूप से हिंदू राष्ट्र बनाने की बात प्रमुखता से उठने लगी है जो कि संविधान विशेषज्ञों की नजर में संविधान सम्मत नहीं है। अन्यथा सिख धर्म के आधार पर खालिस्तान की मांग कुछ लोग उठा रहे हैं तो उसका क्या होगा?


          यूरोप के जिन राज्यों में ईसाई धर्म का बाहुल्य था, वहां रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच मतांतर के कारण भीषण युद्ध हुआ करते थे। कई शताब्दियों के अपने दुखद अनुभव के बाद यूरोप ने धर्म और राज्य को एक दूसरे से अलग करना जरूरी समझा। इसके फलस्वरूप धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की अवधारणा अस्तित्व में आई।


           धर्मनिरपेक्षता का वास्तविक अर्थ यही है कि धर्म व्यक्ति की निजी आस्था का विषय है, अतः राज्य का अपना कोई धर्म नहीं होगा। किंतु इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि राज्य धर्मविहीन होगा। धर्म को सनातन मान्यता के अनुसार कर्तव्य रूप में लें तो राज्य का यह धर्म होगा कि अपने सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करे। कानून का शासन और योग्यता का समादर आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रों के विकास के मूलस्तंभ हैं। कानून का राज्य (Rule of law) स्थापित करने के लिए श्री राम ने एक प्रजा के अपवाद पर प्राणों से भी प्यारी अपनी धर्मपत्नी सीता को भी निर्वासित कर दिया,जिसके कारण उन्हें आज भी आलोचना का पात्र बनना पड़ता है।


       भारत की खूबसूरती यह है कि बंटवारे के बाद धर्म के आधार पर पाकिस्तान का निर्माण हो गया, फिर भी भारत हिंदू,मुस्लिम,सिख,ईसाई के रूप में धर्म आधारित राष्ट्र नहीं बना। इसमें बहुत बड़ी भूमिका हिंदू जीवन पद्धति की है। अन्य संगठित धर्मों में एक ग्रंथ,एक मसीहा और एक विधि विधान की प्रमुखता है, जबकि हिंदू धर्म में शैव,वैष्णव,शाक्त इत्यादि अनेक मत हैं।


        सर्वोच्च न्यायालय का भी मानना है कि 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदंति' की मान्यता वाले हिंदू धर्म में कट्टरता नहीं है, अतः इस महाद्वीप में रहने वाले लोगों की यह जीवन पद्धति  है।


          किंतु एक दल की राजनीति पर जब धर्मनिरपेक्षता के नाम पर तथाकथित मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगा तो दूसरे दल की राजनीति को हिंदू-कार्ड चलने का मौका मिल गया।


              आज की राजनीति में एक धर्म के पूजा स्थान पर जाने की होड़ मच गई और अन्य धर्म उपेक्षित रह गए। जिस धर्म को राज्य से दूर रखने की बात संविधान सभा में प्रमुखता से उठाई गई थी, आज वह धर्म राजनीति का आधार बन गई है।


         राजनीति का मुख्य सरोकार रोटी,कपड़ा और मकान इत्यादि लौकिक समस्याओं का समाधान ढूंढना है। लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के अनुसार शिक्षा,स्वास्थ्य,रोजगार इत्यादि पर विशेष ध्यान देकर सरकार सबका साथ ले सकती है और सबका विकास कर सकती है।


          लेकिन धर्म स्थलों के निर्माण और धार्मिक आयोजनों में सरकार की बढ़ती भूमिका ने राजनीति और धर्म का ऐसा घालमेल कर दिया है कि धर्मनिरपेक्षता और धर्मसापेक्षता पर गहराई से पुनर्विचार की जरूरत महसूस की जाने लगी है।


           धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार पर विचार करते समय कुछ लोगों का मानना है कि धर्म व्यक्तिगत मामला है,इसमें सरकार क्यूं मुख्य भूमिका निभा रही है जबकि अन्य लोग का मानना है कि धार्मिक भावना का आदर करना भी सरकार का एक मुख्य काम है।


          राजनीति विज्ञान का एक प्रचलित सिद्धांत यह है कि सबसे अच्छी सरकार वह है जो सबसे कम शासन करती है। भारत जैसे विशाल देश में जहां रोटी,कपड़ा और मकान आज भी सभी को उपलब्ध नहीं हो पाया है, ऐसे में सबके लिए अच्छी शिक्षा,अच्छा स्वास्थ्य, अच्छे रोजगार की व्यवस्था पर ही राजनीति का ध्यान केंद्रित होना चाहिए।


       विविधता वाले देश भारत के लिए सरकार के सीमित संसाधनों को देखते हुए यह उचित ही था कि राज्य  लौकिक कार्यों पर ही बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों के हित में ध्यान दे और अलौकिक विषय धर्म को धार्मिक लोगों पर और समाज पर छोड़ दे।


       लौकिक समस्याओं का समाधान तो राजनीति कर नहीं पाई और अलौकिक विषय धर्म में जरूरत से ज्यादा सक्रिय हो गई।


         आज देश के नागरिकों को यह सोचना है कि उस धर्मनिरपेक्षता को कैसे अपनाया जाए जो किसी एक धर्म विशेष के तुष्टीकरण पर आधारित न हो और उस धर्मसापेक्षता से कैसे बचा जाए जो राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण देश की विशेष पहचान अनेकता में एकता को खंडित करती हो।


        व्यक्ति में रामत्व हो तो सत्ता से दूर वन में जाकर भी जनसेवा का धर्म निभा देगा और यदि रामत्व नहीं हो तो धर्म को भी राजनीति की सेवा में लगा देगा अर्थात् सत्ता पाने का साधन बना लेगा। आज भी राम सभी के दिलों में इसीलिए बसे हुए हैं क्योंकि उनके राज्य में किसी भी प्रजा को दैहिक,दैविक और भौतिक ताप सता नहीं पाए। इसीलिए महाकवि कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य में लिखा कि लोक का कल्याण करना ही आपके अवतारों  और कार्यों का एकमात्र उद्देश्य है -


'अनवाप्तमवाप्तव्यं न ते किंचन विद्यते


लोकानुग्रह एवैको हेतुस्ते जन्मकर्मणो:।'


'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹