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"असली ब्राह्मण कौन?"
ब्राह्मणवादी जातिव्यवस्था की जितनी भी निंदा की जाए कम है किंतु ब्राह्मणत्व और वर्णव्यवस्था नए-नए रूपों में फिर से अस्तित्व में आ जाती हैं। जैन और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध सबसे सशक्त आवाज उठाई किंतु 'असली ब्राह्मण कौन?' जैसे प्रश्न पर विचार करके महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी ने जाने अनजाने फिर से ब्राह्मणत्व की और वर्णव्यवस्था की प्रतिष्ठा कर दी।
हमारे संविधान की नजर में भी सभी समान हैं किंतु अधिकारियों-कर्मचारियों के प्रथम श्रेणी से लेकर चतुर्थ श्रेणी तक के वर्गीकरण यह बताते हैं कि अपने गुण और कर्म से कोई प्रथम श्रेणी का बन जाता है और कोई चतुर्थ श्रेणी का। इस श्रेणी विभाजन को कृष्ण ने गीता में भी स्वीकार किया था-
'चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:'
जन्म से ही मनुष्य अनेक प्रकार की प्रवृत्ति वाला होता है। ज्ञान की खोज वाले को भूतकाल में ब्राह्मण कहा गया, वर्तमान काल में उनको शिक्षाविद् या वैज्ञानिक कहा जाता है, शक्ति की खोज वाले को पहले क्षत्रिय कहा गया,आज उनको राजनीतिज्ञ,प्रशासनिक अधिकारी, सैन्य अधिकारी या पुलिस अधिकारी कहा जाता है, धन की खोज वाले को वैश्य पहले कहा गया आज उनको उद्योगपति/व्यवसायी या बैंकर कहा जाता है। ज्ञान,शक्ति,धन की विशेष खोज में जो अपने आपको नहीं लगा पाते हैं, वे सेवा में संलग्न हो जाते हैं; प्राचीन काल में उन्हें शुद्र नाम दिया गया और आज सहायक कर्मचारी या चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी नाम दिया जाता है।
आज का मनोविज्ञान भी मानता है कि जिस प्रकार प्रिज्म से गुजर कर किरणें सात रंगों में विभाजित होती हैं उसी प्रकार से मन से गुजर कर व्यक्ति चार टाईप में सेट हो जाते हैं।
इसी प्रकार से देखा गया कि कुछ मनुष्य धन,शक्ति या सेवा से परम तृप्ति को प्राप्त नहीं करते लेकिन ज्ञान से परम तृप्ति को उपलब्ध हो जाते हैं , जिसे हमारी संस्कृति में ब्राह्मण कहा गया जिसका उद्घोष था- 'ज्ञानम् अनंतम् आनंदम्'
विवेकानंद ने ब्राह्मणवाद की घनघोर आलोचना की किंतु यह भी कह गए कि भारतीय संस्कृति का सर्वोत्कृष्ट आदर्श ब्राह्मणत्व है। इसके पीछे आखिर रहस्य क्या है?
आखिर ब्राह्मणत्व है क्या?
ज्ञान की प्यास जगाते जाना और स्वयं को विस्तारित करते जाना ही ब्राह्मणत्व है। विज्ञान भी इस बात को मानता है कि ब्रह्मांड आज भी फैल रहा है। फिर मानवीय चेतना फैलती जाए तो ब्राह्मणत्व को प्राप्त होती हैं और सिकुड़ती चली जाए तो शुद्रत्व को। किसी शायर के शब्दों में-
'सिमटे तो एक मुश्तेखाक है इंसान
फैले तो वुसअते कौनेन में समा ना सके।'
अर्थात् यदि इंसान सिकुड़ता चला जाए ,संकीर्ण होता चला जाए तो मिट्टी से ज्यादा नहीं है और फैलता चला जाए तो ब्रह्मांड में भी न समा सके।
एक तरफ वैज्ञानिक चंद्रयान, सूर्ययान से आगे बढ़ने की तैयारी में है और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जीवन को आमूलचूल रूप से परिवर्तन करने वाला है और दूसरी तरफ हम ब्राह्मणत्व के विरोध में वातावरण और जनमानस का निर्माण कर रहे हैं। पं.नेहरू जी का एक विचारणीय कथन है कि किसी भी चीज को फेंकने से पहले यह देख लो कि उसकी जगह पर क्या रखोगे?
भारतीय संस्कृति ज्ञानप्रधान संस्कृति है और इसी के बदौलत भारत विश्वगुरु बना था। आज पदार्थ के क्षेत्र में ब्राह्मणत्व या वैज्ञानिकों की भूमिका के कारण हम एटम शक्ति से परिचित हो गए किंतु परमात्मा के क्षेत्र में ब्राह्मणत्व ने जो उपलब्धि हासिल की थी, उस शक्ति से अपरिचित रह गए। चेतना की एक ऐसी भी ऊंचाई है जहां पहुंचकर संपूर्ण ब्रह्मांड चैतन्य लगने लगता है , उस दृष्टि को पैदा करने की प्रक्रिया का नाम ब्राह्मणत्व है-
'आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित:'
तब भिन्नरुपात्मक जगत की अभिव्यक्ति इस प्रकार होने लगती हैं-
'सर्वं खल्विदं ब्रह्म'अर्थात् सब कुछ ब्रह्म है।
जन्मना ब्राह्मण नहीं होते हुए भी यह ब्राह्मणत्व प्राचीन काल में वाल्मीकि,वेदव्यास जैसे अनेक महापुरुषों में उदित हुआ और आधुनिक काल में बाबासाहेब अंबेडकर और अब्दुलकलाम जैसी विभूतियों में। जन्म से ही किसी को विशेष योग्यता या अयोग्यता से लाद देना गलत है किंतु इस गलत परंपरा के कारण ब्राह्मणत्व गलत नहीं हो जाता। नहाने के टब के पानी के साथ बच्चे को नहीं फेंक दिया जाता।
विकसित कहे जाने वाले देश वैज्ञानिक या शैक्षिक प्रतिभा के कारण उस ऊंचाई पर पहुंचे हैं,जिनमें भारत से गई हुई प्रतिभाओं का विशेष योगदान है। ब्रेन ड्रेन के कारण मानसिक रूप से गरीब होते हुए भारत की आज भी 500 प्रतिभाएं प्रतिदिन विदेशी नागरिकता ग्रहण कर लेती हैं क्योंकि ब्राह्मणत्व के विकास की अनुकूल परिस्थितियां भारत में वैसी नहीं है।
जाति और धर्म के नाम पर आरक्षण की बात तो लोकसभा चुनाव में हर कोई कर रहा है किंतु प्रतिभा-संरक्षण की कोई आवाज सुनाई नहीं देती। लोकतंत्र बहुमत पर ध्यान देता है किंतु तंत्र की सफलता उंगलियों पर गिने जाने वाले प्रतिभाशाली लोगों पर निर्भर है।
जुलाहे के घर में कबीर पैदा हुए और चमार के घर में रैदास, कुम्हार के घर में गोरा पैदा हुए और दर्जी के घर में नामदेव किंतु ज्ञान को विशेष महत्व देने वाली ब्राह्मण परंपरा ने इन सबको संत के रूप में स्थान दिया। क्योंकि ब्राह्मणत्व की दृष्टि कहती है कि-
'विषादप्यमृतं ग्राह्यममेध्यादपि कांचनम्
नीचादप्युतमा विद्या स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि।'
किसी भी विषय या वस्तु के प्रति यदि ज्ञानपरक दृष्टि हो तो ब्राह्मण, शक्तिपरक दृष्टि हो तो क्षत्रिय,धनपरक दृष्टि हो तो वैश्य और सेवापरक दृष्टि हो तो शुद्र की उत्पत्ति हो जाती है। ज्ञान संसार की सबसे बड़ी शक्ति है। उस ज्ञान के उपासक प्रवृत्ति ब्राह्मणत्व को संरक्षित और संवर्धित करने का प्रयास होना चाहिए। वेदव्यास ने लिखा था 'न हि मानुषात् श्रेष्ठतरम् हि किंचित्'अर्थात् मानव से श्रेष्ठतर कुछ नहीं है, इसमें एक और वाक्य जोड़ा जाना चाहिए-'ब्राह्मणत्व से श्रेष्ठ पाने योग्य कुछ नहीं है' क्योंकि भारतीय संस्कृति मानती है कि वशिष्ठ जैसे गुरु के बिना राम जैसे राजा संभव नहीं और चाणक्य के बिना चंद्रगुप्त के सर पर ताज नहीं-
'बादशाहों का फकीरों से बड़ा रुतबा न था
उस समय धर्म और सियासत में कोई रिश्ता न था
शख्स वह मामूली लगता था मगर ऐसा न था
सारी दुनिया जेब में थी और हाथ में पैसा न था।'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹