संवाद


"राजसी नेता,तामसी मतदाता"


नेताओं के द्वारा प्रचंड गर्मी के बावजूद प्रचंड उत्साह के साथ जगह-जगह दौड़कर सभाएं आयोजित करना और भाषण देना जितना आश्चर्य की बात है,उतना ही आश्चर्य की बात है जब अपने नजदीक के पोलिंग स्टेशन पर जाकर अपनी सरकार चुनने के लिए अपने मताधिकार के प्रयोग करने के लिए भी मतदाताओं द्वारा पर्याप्त संख्या में कोई उत्साह नहीं दिखाया जाना। सामान्य रूप से लोग इसे चुनाव आयोग की असफलता और राजनीतिक विश्वसनीयता से जोड़ रहे हैं लेकिन गहरे से देखने पर इसके पीछे एक दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पहलू भी नजर आता है।


         सांख्य दर्शन के अनुसार मानवीय प्रकृति त्रिगुणात्मक है। सत्व,रज और तम के विविध अनुपात से हमारी प्रकृति विविध प्रकार की हो जाती है। राजसिक प्रवृत्ति का व्यक्ति रुकना जानता ही नहीं। दौड़ने में ही उसके जीवन की सार्थकता उसे मालूम होती है। इनके जीवन में कोई मंजिल ही नहीं होती, जहां पर वे रुक जाएं। पार्षद विधायक की दौड़ में है, विधायक मंत्री की दौड़ में है, मंत्री मुख्यमंत्री बनने की दौड़ में है,मुख्यमंत्री प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में है और प्रधानमंत्री बार-बार प्रधानमंत्री बनने की दौड़ में है-


'मंजिल मंजिल करती दुनिया


मंजिल है कोई शै नहीं


जिसको देखा चलते देखा


पहुंचा तो कोई है नहीं।'


             हमारी संस्कृति की आश्रमव्यवस्था में गृहस्थाश्रम की दौड़ 50 वर्ष तक चलती थी किंतु उसके बाद वानप्रस्थाश्रम में 50 वर्ष से 75 वर्ष तक का समय वापस लौटने की तैयारी के लिए होता था। 75 वर्ष में तो संन्यासाश्रम में प्रवेश हो जाता था ताकि मुक्ति की तैयारी की जा सके। 100 वर्ष के सुखद जीवन की कल्पना की गई थी जिसमें पहला 50 वर्ष प्रवृत्ति का होता था और अगला 50 वर्ष निवृत्ति का होता था ताकि जीवन की दौड़ से थककर व्यक्ति शांति की प्राप्ति के लिए जीवन के उत्तरार्ध अवस्था में कुछ जतन कर सके।


              लेकिन राजसिक प्रवृत्ति वाले व्यक्ति को शांति की कामना ही नहीं होती, उसकी मूलकामना शक्ति की होती है। रावण सोने की लंका में भी संतुष्ट नहीं हुआ और शांति रूपी सीता का अपहरण करने पहुंच गया‌। अहंकार की तृप्ति के लिए शक्ति के खोजी को दशानन बनना ही पड़ता है अर्थात् उसे कई मुखौटे लगाने होते है। आज के नेता तो इतनी तेजी से मुखौटे बदल रहे हैं कि दशानन की जगह 'शतानन' शब्द भी कमतर लगता है।


              इनके ठीक विपरीत तामसिक प्रवृत्ति वाले लोग हैं जिनका मूलमंत्र है-


अजगर करे न चाकरी,पंछी करे न काम


दास मलूका कह गए , सबके दाता राम।


                     मलूकदास के भक्तों की संख्या बहुत बड़ी है। ये जीवन में टस से मस नहीं होना चाहते। तमस इन पर इतना हावी होता है कि इन्हें मुफ्त का अनाज भी दे दो तो ये खाना बनाने का कष्ट भी उठाना नहीं चाहते‌। भूख जैसी प्राकृतिक जरूरत को पूरा करने के लिए भी जो हिलना- डुलना नहीं चाहते, वे मतदान के कर्त्तव्य को निभाने के लिए बूथ तक जाने का कष्ट कैसे उठाएं? तमोगुण के प्रभाव के कारण सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का भी पूरा लाभ ऐसे लोग नहीं उठा पाते ; तभी तो 80 करोड लोगों को मुफ्त राशन की जरूरत आज भी पड़ रही है।


             गीता में श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसी तामसिक प्रवृत्ति वाले लोगों की श्रद्धा चमत्कार में होती हैं। इसलिए चमत्कार करने वाले बाबा या नेता को तामसिक लोग महामानव बना देते हैं। किसी बाबा के दरबार में या किसी नेता की रैली में जो लाखों की भीड़ जुटती है,वो चमत्कार की आशा में ही जुटती है।


            शक्ति के पीछे पागलों की तरह दौड़ने वाले राजसिक प्रवृत्ति के लोग और चमत्कार की आशा में जीने वाले तामसिक प्रवृत्ति के लोग लोकतंत्र को भीड़तंत्र की ओर ले जा रहे हैं।


              किसी भी तंत्र की सफलता के लिए सात्विक प्रवृत्ति वाले लोगों की जरूरत होती है क्योंकि उनके लिए सत्ता भी सेवा का माध्यम बन जाती है। दुर्भाग्य से भारतीय लोकतंत्र की चुनावी व्यवस्था इतनी खर्चीली हो गई है कि सात्विक लोग चुनाव में खड़े होने की सोच भी नहीं सकते। अब तो बहुत से सात्विक लोगों ने मतदान से भी मुंह मोड़ लिया है; यह देश के लिए सबसे ज्यादा चिंता की बात है और चिंतन की भी।-


'राजपथ पर जब कभी जयघोष होता है


आदमी फुटपाथ पर बेहोश होता है।


भीड़ भटके रास्तों पर दौड़ती हैं


जब सफ़र का रहनुमा खामोश होता है।।'


"शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹