संवाद
"डॉक्टर बनने के सपनों की मौत"
लाखों विद्यार्थियों के डॉक्टर बनने के सपने को साकार करने वाली NEET परीक्षा में हुई गड़बड़ी को तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकार किया गया किंतु काउंसलिंग को नहीं रोका गया। विद्यार्थी ही नहीं, उनके मां-बाप भी एनटीए से असंतुष्ट होकर जगह-जगह धरने पर बैठ गए हैं और पूछ रहे हैं कि-
बरसों की कठिन साधना के साथ नाइंसाफी क्यूं?
गुनहगारों को सजा के बदले पनाह व माफी क्यूं?
हंसने-खेलने के किशोरावस्था के दिनों को कुर्बान करके परीक्षा में विद्यार्थी अपना सर्वश्रेष्ठ देता है, किंतु उसका परीक्षा-परिणाम कभी पेपर लीक निगल जाता है,तो कभी ग्रेस मार्क्स निगल जाता है, तो कभी गलत प्रश्नपत्र-वितरण निगल जाता है।
जिस देश में डॉक्टरों की भारी कमी है ,उस देश में डॉक्टर बनने के लिए अच्छा संस्थान पाने के चक्कर में जिस युवा पीढ़ी को इतने पापड़ बेलने पड़ रहे हैं,उस युवा पीढ़ी का इस परीक्षा-व्यवस्था पर कैसे विश्वास होगा और ऐसे देश से कैसे प्रेम होगा? तीसरी-चौथी बार ड्रॉप लेकर एक विद्यार्थी अपने मनोनुकूल संस्थान में प्रवेश के लिए परीक्षा देता है किंतु उसे पता चलता है कि अच्छे नंबर लाने के बावजूद दूसरे विद्यार्थियों को गलत ग्रेस मार्क्स दिए जाने के कारण अथवा पेपर लीक होने के कारण उसका सपना पूरा नहीं हो पाया; तो जरा सोचिए कि उस विद्यार्थी पर क्या गुजरेगी?
हमारी व्यवस्था को कहां तो करुणापूर्ण होना चाहिए था लेकिन दुर्भाग्य की बात कि हमारी व्यवस्था न्यायपूर्ण भी नहीं हो पा रही है। करुणापूर्ण व्यवस्था का मतलब है कि प्रतिभाओं को खोजकर,उसे तराशकर एक ऐसा माहौल दिया जाए जिसमें उसके भीतर छिपी हुई प्रतिभा का बीज वटवृक्ष बन जाए और सारा चमन गुलजार हो जाए। भारतीय जनमानस सुनता आया है कि परमात्मा करुणापूर्ण है;उसके जगत में देर है, पर अंधेर नहीं है।
किंतु जो शिकायतें उभर कर आ रही हैं उससे पता चल रहा है कि एक ऐसी जुगाड़ू व्यवस्था उभर चुकी है जिसमें पैसे के बल पर सब कुछ मैनेज हो जाता है-सेंटर,पेपर,ग्रेस-मार्क्स और न जानें क्या-क्या। प्रतिभा- पलायन (Brain-drainer) का दंश झेल रहे इस देश को प्रतिभा-प्रतिघात (brain-spoiler)का देश भी बहुत जल्दी कहा जाने लगेगा।
तपन सिन्हा द्वारा निर्देशित 'एक डॉक्टर की मौत' फिल्म मैंने देखी थी जिसमें वर्षों की व्यक्तिगत साधना से कुष्ठ रोग का टीका खोजने वाले डॉक्टर को सहयोग करने के बजाय स्वास्थ्य मंत्रालय के अफसर उसका दूरदराज के गांव में स्थानांतरण करवा देते हैं ताकि उसकी खोज आगे नहीं बढ़े और दुनिया के सामने नहीं आए। इस अन्यायपूर्ण-व्यवस्था में उस डॉक्टर की मौत हो जाती है।
आज तो फिल्म नहीं चारों तरफ वास्तविकता दिखाई दे रही है कि किस प्रकार से किसी प्रतिभा को अन्यायपूर्ण व्यवस्था द्वारा जड़मूल से ही काटने का खेल चल रहा है। पहले एडमिशन के लिए लाखों की कोचिंग- फीस फिर डॉक्टर बनने के लिए करोड़ों की कॉलेज-फीस एक गरीब या मध्यमवर्गीय प्रतिभा कहां से जुटाएगी? और जो घर-जमीन बेचकर फीस जुटाते भी हैं तो वे किस प्रकार के डॉक्टर बन पाएंगे?
गरीबी से जूझ रही प्रतिभाओं को तराशने वाली सरकारी शिक्षा को पंगु बनाकर पैसे को प्राथमिकता देने वाले कोचिंग संस्थान को आगे बढ़ा दिया गया है और अब तो अमीरों के बच्चों को आगे बढ़ाने वाली जुगाड़ू व्यवस्था का निर्माण करके प्रतिभाओं का गला घोंट दिया गया है जिसमें एक डॉक्टर बनने में प्रतिभा की मौत हो जाती है-
'हे कर्ण!कब तक अपने मूल्यों की बलि चढ़ते रहेगा?
प्रतिभा के बावजूद पल-पल घुटता और मरता रहेगा??'
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹