🙏Happy Father's day🙏
संवाद
"पिता से परमपिता तक"
'फादर्स डे' को मैं भारतीय संस्कृति पर पश्चिमी संस्कृति के पड़ रहे विशेष प्रभाव के रूप में देखता हूं। लेखों,उद्धरणों और celebrations से इसके बढ़ते प्रभाव की एक झलक मिलती है,जिसमें पिता के प्रति कृतज्ञता का भाव ज्ञापित किया जाता है। लेकिन व्यवहार में उन कृतज्ञता-भावों की झलक मिलनी बहुत मुश्किल होती है क्योंकि अधिकांश पिता के संबंध अपनी संततियों के साथ सामान्य नहीं है।
इसका मूल कारण मेरी समझ में यह है कि अपनी संतति के प्रति मां का प्रेम नैसर्गिक और बेशर्त होता है क्योंकि वह नौ महीने पेट में रखती है और दिन-रात उसके लिए जीती है। 'पुत्र भले ही कुपुत्र हो जाए किंतु माता कभी कुमाता नहीं हो सकती' यह लोकोक्ति कुछ अपवादों के बावजूद सत्य के बहुत निकट है।
पिता यदि मां जितना ममता से पूर्ण हो सके,केयरिंग हो सके और बेशर्त अपना प्यार लुटाता रह सके तो वह वास्तविक अर्थों में पिता बन सकता है। अर्थात् पिता होना एक साधनागत उपलब्धि है।
गृहस्थी चलाने के लिए नौकरी,व्यवसाय या बाहरी चीजों में ज्यादा उलझाव अधिकतर पिताओं को अपनी संतति से दूर कर देती है। किशोरावस्था आते-आते संवादहीनता की स्थिति बन जाती है और संतति के मन में यह बात घर करने लगती है कि पिता अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का मुझे माध्यम बना रहे हैं। हर आत्मा साध्य (ends) है,वह किसी का साधन (means)नहीं बनना चाहती। यहां से शुरू होता है पीढ़ियों का संघर्ष और पिता के साथ यह ज्यादा इसलिए बढ़ जाता है कि अधिकतर पिता अपनी इच्छाओं को आदेशात्मक भाषा में थोपने लगते हैं।
अधिकांश पिता स्वयं महत्वाकांक्षा में जीते हैं और अपनी संतति से प्रेम की उम्मीद करते हैं;स्वयं झूठ बोलते हैं और अपनी संतति से सत्य की उम्मीद करते हैं।
जो पिता अपने बच्चों के पास प्यार से भरे हुए और ऊंचाइयों को ले जाने वाले एक परिवेश की तरह रहते हैं, उन्हें देखकर परमपिता में संतति की आस्था जगने लगती हैं। हमारी संस्कृति ने परमात्मा को 'परमपिता' कहा है, परममाता नहीं; क्योंकि मां के लिए जो सहज हैं, वे गुण पिता के लिए बहुत बड़ी तपस्या से प्राप्त करने योग्य होते हैं, अतः उनका समादर ज्यादा है।
सिर्फ जन्म दे देने से कोई पिता नहीं बन जाता, जो अपनी संतति को हर प्रकार से हर परिस्थिति में रक्षा कर सके वह पिता है। अच्छा पिता बनने के लिए आमूलचूल रूप से अपने में बड़ा बदलाव लाना पड़ता है। क्योंकि बच्चे पिता के शब्द नहीं सुनते, सीधे-सीधे उनका आचरण और जीवन देखते हैं।
अधिकतर बच्चे आजकल इसलिए नास्तिक बन रहे हैं क्योंकि पिता को देखकर उनमें परमपिता में कोई आस्था नहीं जगती। अनुभवसिक्त मेरी इस स्वरचित कविता में आपको संतति के कोमल मानस पर महत्वाकांक्षी पिता के बनते हुए एक-एक चित्र को उकेरा गया है, आप ध्यान से पढ़ें और आप ही निर्णय करें कि ऐसे पिता को देखकर क्या परमपिता में आस्था जग सकती हैं??
"पापा सुबह-सुबह पाठ पढ़ा रहे थे कि सदा सत्य बोलो
तभी बाहर से आवाज आई कि कृपया दरवाजा खोलो।
पापा ने बगल वाली खिड़की से झांककर देखा
था कोई अपरिचित और अनोखा
तात धीमे से मेरे कान में आकर फुसफुसाए
मैं बाहर जाकर बोला-'वे रात से घर नहीं आए'।
प्रेमपूर्वक रहो और मधुर वाणी बोलो
पिता द्वारा पढ़ाया जानेवाला यह दूसरा पाठ था
किंतु तब तक इस पढ़ाई से मैं हो चुका बोर और विश्रांत था
जब मुझसे तीन-चार बार में भी यह पाठ दोहराया नहीं गया
पिता से खुद को आपे में ठहराया नहीं गया
उन्होंने झट से एक चांटा गाल पर जड़ दी
और बोले- गदहे! तूने तो हद कर दी।
मैं चांटा खाकर जोर-जोर से रोने लगा
किंतु कुछ सोचकर यह मन मेरा खोने लगा।
'सदा सत्य बोलो' पाठ के बाद पिता मुझसे झूठ बोलवाते हैं
'प्रेमपूर्वक रहो और मधुरवाणी बोलो'के बाद गाल पर चांटा जमाते हैं।
सच-झूठ,प्रेम-चांटा का रिश्ता समझ नहीं पड़ता
इस कोमल मस्तिष्क में यह कहीं से नहीं उतरता
इसलिए हे भगवन!मैं उधेड़बुन में पड़ गया हूं
तेरी दुनिया का नन्हा फूल खिलने के पहले सड़ गया हूं।
मेरे पिता सैनिक थे किंतु सैनिकवाले रूप की जगह मुझे प्रेमवाला रूप उनका ज्यादा दिखाई दिया।वे रामचरितमानस का नियमित पाठ करते हुए प्रेम से सारे संबंधों को निभाते और बच्चों के लिए सिर्फ परमात्मा से प्रार्थना करते थे। प्रेम के अनुभव के कारण आज पिता के नहीं होने पर भी ऐसा लगता है कि पिता की तरह ही परमपिता मेरी प्रार्थना अवश्य सुनेगा। पिता अपनी संतति को अपना प्रेम दे सकता है और परमपिता से प्रार्थना कर सकता है; इससे ज्यादा और बड़ी भूमिका पिता की और कुछ नहीं हो सकती।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹