संवाद
'सेमेस्टर-परीक्षा'
नई शिक्षा नीति के अंतर्गत सेमेस्टर परीक्षा प्रणाली अपनाए जाने के पीछे मुख्य उद्देश्य यह था कि नियमित अध्यापन और नियमित टेस्ट के द्वारा गुणवत्ता में सुधार लाया जाए। इसके लिए जरूरी था कि सभी विषयों के शिक्षक पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों और विद्यार्थी नियमित रूप से कक्षाओं में उपस्थित होते हों। जीजीटीयू के अंतर्गत आने वाले महाविद्यालयों में सेमेस्टर परीक्षा के कारण जो कठिनाइयां उभर कर आ रही हैं , उन पर तत्काल विचार नहीं किया गया तो वे समस्याएं अत्यंत विकराल रूप ले लेंगी।
देश के प्रतिष्ठित विद्वानों द्वारा बनाई गई नई शिक्षा नीति अनेक खूबियों से भरी हैं और सतत मूल्यांकन की सेमेस्टर शिक्षा प्रणाली गुणवत्ता में बहुत बड़ा सुधार ला सकती है। किंतु आदिवासी बहुत इलाके में जहां शिक्षकों की भारी कमी है और अधिकतर विद्यार्थी गरीब पृष्ठभूमि के होने से मजदूरी आदि के कारण महाविद्यालय में नियमित नहीं आ पाते हैं , वहां के लिए वरदान साबित होने वाली नीतियां अभिशाप में धीमे-धीमे तब्दील हो रही हैं।
विधानसभा और लोकसभा चुनावों के कारण जहां नियमित पढ़ाई नहीं हो पाई, वहां भी सेमेस्टर परीक्षा के अंतर्गत आंतरिक परीक्षा और मुख्य परीक्षा कराने में शिक्षकों के लग जाने के कारण अध्यापन-व्यवस्था पूर्णरूपेण चरमरा गई है। वार्षिक परीक्षा पद्धति वाले विद्यार्थी तो प्रभावित हुए ही हैं,सेमेस्टर परीक्षा पद्धति वाले विद्यार्थी तो और भी ज्यादा प्रभावित हुए हैं। क्योंकि जिन विषयों के शिक्षक नहीं है ,उन विषयों की भी परीक्षा कराने और कॉपी जांच कर नंबर को अपलोड करने की जिम्मेदारी शिक्षकों पर हैं।
जब पढ़ाने वाला शिक्षक अन्य विषयों की परीक्षा के लिए प्रश्नपेपर बनवाने से लेकर कॉपी जांच करवाने और अपलोड कराने के काम में लगा रहेगा ; इसके अतिरिक्त कई समितियों की जिम्मेदारियां और कई प्रकार के सरकारी योजनाओं की क्रियान्विति में व्यस्त रहेगा तो अपने विषय के पाठ्यक्रम को पूरा करने के लिए कब समय पाएगा?
नवीन शिक्षा नीति का मुख्य उद्देश्य बताया गया था कि रुचि के अनुसार विषयों का चयन कर सेमेस्टर परीक्षा प्रणाली के अंतर्गत विद्यार्थी गंभीर अध्ययन के द्वारा समालोचनात्मक विश्लेषण की क्षमता और नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा अपने व्यक्तित्व में ला सकेंगे। लेकिन धरातल पर स्थिति यह है कि आंतरिक टर्म टेस्ट की कॉपियां जांच करते समय बोर्ड पर लिखवाए गए प्रश्नों को उतारने में भी जितनी अशुद्धियां मिल रही हैं, उतनी अशुद्धियां और अज्ञान तो माध्यमिक शिक्षा में भी अक्षम्य है, महाविद्यालय की तो बात ही क्या? चार विद्यार्थियों की कॉपियां तो ऐसी मिलीं जिनमें उनका नाम ,पिता का नाम और रोल नंबर भी एक ही लिखा था। खानापूर्ति के लिए भीड़ में ली गई परीक्षा का यह हश्र देखकर तो मां शारदे की आंखें भी आंसुओं से भर जाए।
विश्वविद्यालय के माननीय कुलपति जी से यह अपेक्षा की जाती है कि स्थानीय क्षमताओं और राष्ट्रीय आकांक्षाओं के बीच तालमेल बिठाने के लिए वे विशेष कार्य योजना बनाएं। शिक्षा नीति कितनी भी अच्छी क्यों न हो, उसे जब तक क्षेत्र विशेष की आवश्यकताओं और क्षमताओं के अनुसार नहीं ढाला जाए, वह मनोवांछित फल नहीं दे सकती। महात्मा बुद्ध "कुशल उपाय" का उपयोग करते थे। उदाहरण के लिए एक छोटा बच्चा अपने घर में बंद है और बाहर में आग लग जाए तो आग-आग चिल्लाने पर वह बाहर नहीं आएगा। उसे तो टॉफी का लालच देकर सुरक्षित रास्ते से बाहर निकालना होगा। क्योंकि
"आग क्या चीज है, ये तब समझे
जब आंच हमारे मकान में आई
मुझसे लिखा गया ना कोई जवाब
जब जिंदगी इम्तिहान में आई।"
जिस प्रकार से आग की आंच के अनुभव के बिना आग के खतरे को नहीं समझा जा सकता, उसी प्रकार स्कूली शिक्षारुपी नींव को मजबूत किए बिना और पर्याप्त शिक्षकों के पर्याप्त क्लास के बिना उच्च शिक्षा के सेमेस्टर प्रणाली का फायदा नहीं उठाया जा सकता। महाविद्यालय के शिक्षकों पर तो दोहरी जिम्मेवारी है। नींव को भरना और उस पर उच्च शिक्षा का भवन उठाना। इसके लिए तो 'इलेक्शन अर्जेंट' की तर्ज पर 'एजुकेशन अर्जेंट' अभियान चलाया जाना चाहिए।
नियमित क्लासेज और अतिरिक्त क्लासेज की मांग तो विद्यार्थियों की तरफ से उठनी चाहिए। लेकिन स्कॉलरशिप की मांग उठाने वाले विद्यार्थी अपने भविष्य के प्रति इतने सो चुके हैं कि उन्हें यह भी पता नहीं चल रहा कि बिना अच्छी शिक्षा के परीक्षा पास की डिग्री मिल जाने से आगे कुछ नहीं होने वाला है। ऐसी डिग्रियों का नतीजा यह है कि फर्जी तरीके से शिक्षक बनने वाले अब गिरफ्तार हो रहे हैं, परीक्षाओं के पेपर लीक हो रहे हैं, बेरोजगारी चरम पर है और व्यवस्था चरमरा चुकी है।
शिक्षा रूपी कमल की पांच पंखुड़ियां हैं-शिक्षार्थी,शिक्षक, अभिभावक, समाज और सरकार। जब तक सभी धरातल पर वस्तुस्थिति को ध्यान से नहीं देखें, तब तक समस्या को नहीं जाना जा सकता, और जब तक समस्या पर गहरा संवाद नहीं हो, समाधान नहीं पाया जा सकता। शुतुरमुर्ग की तरह जमीन में आंखें गाड़ लेने से समस्या खत्म नहीं होती, समस्या को स्वीकार करने और उस पर गहरा चिंतन-मनन करने से कोई रास्ता निकलता है।
शिक्षक एक तरफ विद्यार्थियों को पढ़ाई से दूर हो जाने के कारण गहन अंधकार की ओर बढ़ते देख रहा है और दूसरी तरफ संसाधनों की कमी से जुझते हुए शिक्षा-संस्थान को गैरशैक्षिक कार्यों में उलझकर पंगु होता हुआ देख रहा है ; अतः वह बहुत गहरी पीड़ा में है। भले ही शिक्षक मुखर होकर कुछ कह नहीं पाता हो किंतु वह मौन होकर जी भी नहीं पाता।
'शिष्य-गुरु संवाद' से प्रो.सर्वजीत दुबे🙏🌹